(14/08/2016) 
कुर्सी तेरे भाग में दो कौड़ी के लोग - बद्रीनाथ वर्मा
देश को आजादी मिले 69 साल हो गये। यह वक्त कम नहीं होता। एक पूरी की पूरी पीढ़ी बुढ़ा गई। लेकिन सवाल है कि आजादी के संदर्भ में हमने जागती आंखों से जो सपने देखे थे, वह पूरे हुए क्या। या हमारे स्वतंत्रता आंदोलन के शहीदों ने जिस उद्देश्य के लिए अपने प्राणों तक की आहुति दे दी क्या हम उसे पूरा कर सके। इसका जवाब शायद नहीं में ही होगा।

अपने प्राणों को बलिदान करते हुए उन्होंने कभी नहीं सोचा होगा कि आजादी के बाद देश में भ्रष्टाचार, कदाचार की अबाध गंगा बहने लगेगी। आज हमारा देश और किसी मामले में आगे हो न हो पर भ्रष्टाचार में दुनिया के दस शीर्ष देशों में है। पड़ोसी मुल्क चीन में मात्र कुछ लाख रुपये रिश्वत लेने के जुर्म में वहां के रेलमंत्री को फांसी की सजा सुना दी जाती है जबकि अपने यहां करोड़ों अरबों डकार जाने वाले हमारे राजनेताओं का एक बाल तक बांका नहीं होता। देश का कोई ऐसा महकमा नहीं बचा जहां भ्रष्टाचार ने अपने पांव नहीं पसारा हो। नीचे से ऊपर तक सभी एक दूसरे से होड़ लेते हुए भ्रष्टाचार की गंगोत्री में डुबकी लगा रहे हैं। ताकि उनकी सात पीढ़ियां सुरक्षित हो जायें। इधर महंगाई है कि सुरसा के मुंह की तरह दिन ब दिन बढ़ती ही जा रही है। जिंदगी दिन ब दिन दूभर होती जा रही है। अच्छे दिन आने वाली है के ख्वाबों के हिंडोलों में झूलने वाली जनता की थाली से दाल व सब्जी कबके नदारद हो चुके हैं। कालाबाजारी व भ्रष्टाचार मानो जन्मसिद्ध अधिकार हो गया है। भ्रष्टाचार की ही देन है कि हर रोज अपना रुपया डॉलर से मात खाता जा रहा है। जिस गति से भ्रष्टाचार में बढ़ोत्तरी हुई है उसी तेजी से रुपये का अवमूल्यन भी हुआ है। आज एक डॉलर की कीमत लगभग सड़सठ रुपये तक पहुंच चुकी है। जबकि 15 अगस्त 1947 को जब अंग्रेजों से देश को आजादी मिली उस समय रुपया व डॉलर कदम से कदम मिलाकर चल रहे थे। यानी एक रुपया एक डॉलर के बराबर था। लेकिन आजादी के 67 सालों में रुपया भी लगभग रिटायरमेंट की उम्र में पहुंच गया है। या यूं कहें कि उससे भी आगे। आज एक डालर की तुलना में रुपये की औकात घटकर सड़सठ रुपये के आसपास पहुंच गयी है तो इसके लिए कौन जिम्मेदार है। हालांकि इसके लिए सिर्फ किसी एक राजनीतिक दल को दोष देना नाइंसाफी होगी। जब जिस पार्टी को मौका मिला उसने देश को कंगाल बनाने में अपनी ओर से कोई कसर नहीं छोड़ी। हां, ये दीगर बात है कि आजादी के बाद सबसे ज्यादा सत्ता पर कांग्रेस ही काबिज रही। इस लिहाज से इसका सेहरा इसके सिर ही बंधता है।

15 अगस्त 1947 को जब देश आजाद हुआ तो हर देशवासी की आंखों में एक सुनहरे भविष्य का सपना था। पर वह सपना धीरे धीरे दिवास्वप्न में तब्दील होता गया। दिन बीतते गये लोकतंत्र राजतंत्र में तब्दील होता गया। वंशवाद से होते हुए सत्ता पर धन बल और बाद में बाहुबल हावी होता गया। 15 अगस्त यानी स्वतंत्रता दिवस का पालन महज एक रस्म अदायगी भर रह गया। केवल एक वार्षिक समारोह। स्कूल कालेजों में सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा गायन के साथ हर साल इस दिन लालकिले की प्राचीर से हमारे प्रधानमंत्री जी देश को सपने परोसते आ रहे हैं। पर वास्तव में ये सपने सपने ही रह गये आज तक धरातल पर नहीं आ सके। प्रत्येक भारतीय के लिए उसकी आजादी के भिन्न-भिन्न मायने रहे हैं। कोई स्वतंत्रता को किसी नजरिए से देखता है तो किसी के लिए स्वतंत्रता का अर्थ कुछ अलग होता है। लेकिन एक बात जो हम सभी स्वीकार करते हैं वो यह है कि आजादी के बाद और आजादी के पहले वाले भारत में बहुत सी असमानताएं विद्यमान हैं। हालांकि बहुत से लोग इस बात पर एकमत हैं कि बढ़ते भ्रष्टाचारमहंगाईआपराधिक घटनाओं की वजह सेआज का भारत वो नहीं है जिसकी कल्पना आजादी के उन मतवालों ने की थी लेकिन सच यह भी है कि हम जिस आजाद भारत में जी रहे हैं उसे दुनिया के सबसे बड़े और महान लोकतांत्रिक देश होने का भी गौरव प्राप्त है। सवाल यह है कि यह आजादी मिली किसे। आम आदमी को आजादी का कितना फायदा मिला। दरअसलहमें अंग्रेजों से तो आजादी मिल गई पर स्वराज्य हमसे अभी भी कोसों दूर है। अक्सर लोगों को यह कहते सुना जाता है कि क्या हमारे स्वतंत्रता सेनानियों का आजादी से तात्पर्य सिर्फ सत्ता हस्तानांतरण से था। बिल्कुल नहीं। लेकिन हुआ यही। आज भी देश में अंग्रेजों द्वारा बनाये गये अधिकतर कानून लागू हैं। वही मैकाले की शिक्षा पद्धति, वही पुलिसिया आतंक। कुछ भी तो नहीं बदला। हां, अगर कुछ बदला तो यही कि देश में नया प्रभुवर्ग तैयार हुआ।  

अंग्रेजों से मिली आजादी को देश के इस नये प्रभुवर्ग ने हाइजैक कर लिया। आज अंग्रेजी जानने वाली देश की मात्र तीन प्रतिशत आबादी के हाथों में देश की सत्तानबे प्रतिशत जनता के भाग्य निर्धारण की बागडोर है। देश में भ्रष्टाचार, बेरोजगारी व महंगाई चरम पर है। ऐसे में जाहिर है देश में गरीबों की संख्या बढ़ी है, पर हमारे हुक्मरान आंकड़ेवाजी के सहारे गरीबी घटने का ढिढोरा पीटे जा रहे हैं। अपनी सत्ता कायम रखने के लिए वोटों की सौदागरी हुई। धर्मनिरपेक्षता के आडंबर के तहत वोटबैंक की राजनीति हुई। यहां तक कि देश की कीमत पर भी। बस बदला तो यही कि गोरे अंग्रेजों की जगह हमारे देशी अंग्रेजों ने ले ली। यह कितनी बड़ी विडंबना है कि यहां आजादी के इतने वर्षों बाद भी हिन्दी व देश की अन्य भाषाएं अपना उचित स्थान नहीं पा सकीं। हाई कोर्ट व सुप्रीम कोर्ट से पीड़ितों को न्याय हिन्दी में मिले आज भी यह दिवास्वप्न ही बना हुआ है। इससे बड़ी शर्म की बात और क्या हो सकती है। विडंबना ही है कि हिन्दी का मर्सिया पढ़ने के लिए हम हर साल बड़े तामझाम के साथ हिन्दी दिवस मनाते हैं जबकि होना तो यह चाहिए था कि अंग्रेजों के साथ ही अंग्रेजी की भी विदाई हो गई होती ताकि हम हिन्दी दिवस की बजाय अंग्रेजी दिवस मनाते जैसे स्वतंत्रता दिवस मनाते हैं। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। अगर ऐसा हो जाता तो फिर इन तीन फीसदी अंग्रेजीदां का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाता। कुल मिलाकर अंग्रेज तो चले गये लेकिन अंग्रेजियत आज भी कायम है। सवाल यह भी है कि क्या आजादी देश को लूटने के लिए मिली थी। देश के विकास के नाम पर आजतक जितनी राशि का बंदरबांट हुआ अगर वास्तव में उन पैसों का सही तरीके से इस्तेमाल किया गया होता तो आज हमारा देश सचमुच ही सोने की चिड़िया होता। कहने का मतलब यह कि सत्ता केवल भाई भतीजावाद की भेंट चढ़ गई। लोकतंत्र के पहरुए कभी भाषा के नाम पर, कभी धर्म के नाम पर, कभी जाति के नाम पर कभी क्षेत्र के नाम पर तो कभी किसी और नाम पर सिर्फ लोगों की भावनाएं भड़काते रहे हैं। एक तो इससे लोगों का असली मुद्दों से ध्यान भटक जाता है और दूसरी यह कि इन भावनात्मक मुद्दों के सहारे वोटों की फसल भी जमकर काटी जाती है। नेताओं के बेतुके बयानों के तो क्या कहने। एक के बाद एक दिये जाने वाले उनके हास्यास्पद बयान तो खुद का ही सिर पीटने को बाध्य करते हैं। जहां तक नेताओं की बयानबाजी का प्रश्न है तो यह हमें बताता है कि उनकी सोच कितनी उथली है। इन बयानवीरों को सामाजिक ताने-बाने की कितनी समझ है। उन्हें इस बात का भी अहसास नहीं है कि उनके ऐसे बयानों के क्या मायने हैं। इनका क्या संदेश जनमानस में जायेगा। निष्कर्ष यह भी है कि राजनेताओं की सोच देखकर राजनीतिक पराभव का आकलन कर लिया जाये। शायर अशोक अंजुम के शब्दों में अगर कहें तो दृश्य कुछ इस तरह का दिखता है-

न जाने किस जन्म काभोग रही है भोग,

कुर्सी तेरे भाग मेंदो कौड़ी के लोग।।

 

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