(30/08/2016) 
देखो हुक्मरानो! कहीं सुनील तो कहीं दाना मांझी- बद्रीनाथ वर्मा
देखो हुक्मरानों! आंखें खोलकर ठीक से देखो। यह कानपुर है और वह कालाहांडी था। लेकिन एक दूसरे से हजारों किलोमीटर दूर इन दोनों स्थानों में तुम्हें कोई फर्क नजर आ जाए तो कहना। दोनों जगहों की कहानी एक जैसी है। तुम्हारा सड़ा गला सिस्टम न तो एक बच्चे के मजबूर बाप की करुण पुकार सुन पाया और न ही एक बेबस पति की गुहार। मैं कानपुर निवासी वही अभागा सुनील हूं जिसके बेटे की जान तुम्हारी संवेदनहीनता ने ले ली।

बुखार से  तप रहे अपने बच्चे की जान बचाने के लिए उसे अपने कंधे पर लादे एक पिता अस्पताल में इधर-उधर मारा मारा फिरता रहा लेकिन न तो उसे स्ट्रेचर मिली और न ही डॉक्टर। बीमार बेटे को कंधे पर लादे अस्पताल के एक हिस्से से दूसरे हिस्से तक चक्कर काटते हुए मैंने कभी डॉक्टरों की चिरौरी की तो कभी स्ट्रेचर के लिए भागदौड़, लेकिन किसी का दिल नहीं पिघला। अंत में मेरी लाचारी देख मेरे बेटे ने मेंरे कंधे पर ही दम तोड़ दिया। याद रखो, मेरा बेटा नहीं मरा बल्कि तुम्हारा सिस्टम मर गया। बुखार से तप रहे अपने बेटे को लेकर बड़ी उम्मीदों के साथ बेहतर इलाज के लिए कानुपर के हैलेट अस्पताल गया था। लेकिन तुम्हारी सड़ी गली व्यवस्था मेरे बच्चे के लिए एक स्ट्रैचर तक नहीं उपलब्ध करा पाई। अपने कंधे पर लादे इधर उधर भागते मैंने अपने बेटे को तिल तिल मरते देखता रहा। घंटों तक अपने हृदय के टुकड़े को कंधे पर लादे इधर-उधर भटकने के बाद अंत में उसी अस्पताल के एक डॉक्टर ने देखा और बच्चे को मृत घोषित करते हुए कहा कि यदि दस मिनट पहले आ जाते तो बच्चे की जान बचाई जा सकती थी। मेरा बेटा तो नहीं लौट सकता लेकिन कुछ ऐसा करो कि किसी और के बेटे के साथ ऐसा न हो। अभी ज्यादा दिन नहीं हुए जब कालाहांडी में भी इसी तरह की बेबसी दिखाई पड़ी थी। अपनी मृत पत्नी के शव को अपने कांधे पर लादे दिखाई पड़े दाना मांझी मामले में भी मानवता शर्मसार हुई थी और अस्पतालों की संवेदनहीनता उजागर हुई थी। दाना मांझी की कहानी सुन लो उन्हीं की जुबानी। कालाहांडी के ग़रीब आदिवासी दाना मांझी की यह व्यथा कथा हमारी शासन व्यवस्था के गाल पर तमाचा भी है। जो शासन व्यवस्था गरीबों को मौत के बाद भी इज्जत न दे सके, उस पर केवल लानत भेजनी चाहिए।   

तुम्हारी बेरुखी की वजह से अपनी पत्नी के शव को कंधे पर लादे ले जा रहा मैं दाना मांझी हूं। आजादी को 70 साल हो गये लेकिन आज भी तुम्हारी इस शासन व्यवस्था में हम जैसे गरीबों को जीने का अधिकार नहीं है। यह मैं और मेरी पत्नी दोनों ही जान गये हैं। घिन आती है तुम्हारी इस व्यवस्था से। कहां तो सोचा था कि आजादी के बाद हमारे भी दिन फिरेंगे। स्वतंत्र देश के नागरिक के तौर पर हमें भी वे सारी मौलिक सुविधाएं मिलेंगी जिस पर हमारा भी उतना ही हक है जितना कि किसी और का। लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। मेरी पत्नी मुझसे ज्यादा भाग्यवान निकली जो तुम्हारी इस जलालत भरी दुनिया को अलविदा कह गई। उसने शायद तुम्हारे उजले व चमकदार चेहरे के पीछे छिपे असली चेहरे को देख लिया था। खैर, मैं जिस कालाहांडी से आता हूं वह लगभग 20 साल पहले तब चर्चा में आया था जब वहां से आने वाली भुखमरी की खबरों ने देश दुनिया को झकझोर कर रख दिया था। भूख की जंग में हारे माता पिता द्वारा महज कुछ रुपयों की एवज में अपने बच्चों को बेचने की खबरों ने मानो पूरे देश को बेचैन कर दिया था। जैसा अमूमन होता है। होहल्ला के बाद सरकारें जागी थीं। इलाके की तकदीर बदल देने की लंबी चौड़ी बातें की गई थी। हालांकि अधिकतर वादे हवा हवाई ही साबित हुए। ओडिशा के इस शापित इलाके में आज भी कुछ खास नहीं बदला है। शहरों व कस्बों में भले ही कुछ चमक दमक दिखाई दे जाएं, गांवों की तकदीर नहीं बदली। आज भी यहां की तस्वीर उतनी ही बदरंग है जितनी बीस साल पहले थी। आज भी यहां उतनी ही गरीबी है। उतनी ही भूख है और भुखमरी भी। यह तुम्हारे लोकतंत्र, तुम्हारी शासन व्यवस्था व सामाजिक ताने बाने पर गहरा काला धब्बा है। तुम यह सोचकर भले ही खुश हो लो कि हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र हैं लेकिन अगर थोड़ी सी भी शर्म बची हो तो, डूब मरो चुल्लु भर पानी में। इस हकीकत से मुंह नहीं मोड़ सकते कि देश की एक बड़ी आबादी आज भी गरीबी रेखा से नीचे अपना जीवन यापन कर रही है। दो जून की रोटी को मोहताज यह आबादी भी इसी स्वतंत्र भारत की नागरिक है। लेकिन दुर्भाग्य ही है कि आज़ादी के इतने सालों बाद भी देश की राजनीति और संसाधन एक विशेषाधिकार प्राप्त उच्च वर्ग की बपौती बनकर रह गया है। बाकी को केवल वोट देकर सियासतदानों को चुन कर दिल्ली, लखनऊ व भुवनेश्वर भेजने का अधिकार है। भारत के विशेषाधिकार प्राप्त इस राजनीतिक वर्ग ने एक ऐसी व्यवस्था तैयार की है जिसका हिस्सा देश का ग़रीब और कमज़ोर वर्ग नहीं बन सका है। इस आधुनिक समाज में ग़रीब और कमज़ोर के लिए सोचने की जगह लगातार सीमित होती जा रही है। इस कमजोर वर्ग की पहुंच न तो न्याय के मंदिर तक है और न ही उसके लिए चिकित्सा सुविधा है। देश की यह बड़ी आबादी इलाज के अभाव में छोटी बीमारियों से मौत का शिकार हो जाती है।

 खैर, अब बात करते हैं 23 अगस्त की उस घटना की, जिससे न केवल इंसानियत शर्मसार हुई बल्कि जिसने भी टीवी पर मुझे देखा सुना ग्लानि से भर उठा। दरअसल, मेरी पत्नी का टीबी से देहान्त हो गया था और मेरे पास इतने पैसे नहीं थे कि मैं शव को 60 किलोमीटर दूर अपने घर ले जाने के लिए किसी वाहन का प्रबंध कर पाता। पाकेट में केवल ढाई-तीन सौ रुपये थे जबकि वाहनों का किराया हजारों में। बाद में पता चला कि शवों को उनके घर तक पहुंचाने की व्यवस्था करना अस्पतालों की जिम्मेदारी होती है। इसके लिए सरकार की तरफ से उन्हें राशि भी मुहैय्या कराई जाती है. लेकिन मेरी पत्नी के शव को मेरे घर तक पहुंचाने की व्यवस्था करने के बजाय अस्पताल ने जल्द से जल्द शव को हटाने के लिए मुझ पर दबाव बनाना शुरू  कर दिया था। जबकि किसी भी शव को उसके घर तक पहुंचाने के लिए पहले से ही सरकारी योजना है। बावजूद इसके मैं अस्पताल प्रशासन के सामने गिड़गिड़ाता रहा लेकिन किसी ने भी मेरी एक नहीं सुनी। अस्पताल द्वारा साफ इंकार करने के बाद मेरे पास बस यही एक चारा था कि मैं अपनी पत्नी की लाश को ख़ुद ही उठा कर अपने गांव लेकर जाऊं जो अस्पताल से लगभग 60 किलोमीटर दूर था। थक हारकर मैंने अपने कंधे पर अपनी पत्नी की लाश उठाई और पैदल ही चल पड़ा। साथ में रोती बिलखती मेरी 12 वर्षीया बेटी भी थी। यह मेरी पत्नी का शव नहीं तुम्हारी सड़ी गली व्यवस्था की लाश थी। लगभग बारह किलो मीटर तक पैदल  चलने के बाद एक पत्रकार को इस बात की खबर लगी। मसालेदार खबर की टोह में लगे इस पत्रकार की खींची गई तस्वीरों ने तुम्हारे इस सिस्टम की पोल खोलकर रख दी। हां, अस्पताल या प्रशासन ने तो मदद नहीं कि लेकिन उस पत्रकार के प्रयासों की वजह से एक स्वयंसेवी संस्था ने मेरी पत्नी के शव को मेरे गांव तक ले जाने के लिए वाहन उपलब्ध करा दिया। सुना है टीवी चैनलों पर एक चादर में लिपटी हुई लाश को अपने कंधों पर लेकर मुझे चलते हुए दिखाए जाने का दृश्य बेहद दर्दनाक था।

गलत, मैं अपनी पत्नी की लाश नहीं, भारतीय लोकतंत्र, शासन-प्रशासन और समाज की संवेदनहीनता का बोझ अपने कमज़ोर कंधों पर उठाए हुए था। मीडिया की सुर्खियां बनने के बाद लोगों की आंखें खुली है। शासन-प्रशासन के साथ सामाजिक संस्थाएं भी अब मदद को आगे आ रही हैं। यह अच्छी बात है लेकिन अगर यही सदाशयता पहले दिखाई गई होती तो शायद मेरी पत्नी नहीं मरती उसे चंद रुपयों में बचाया जा सकता था। और अगर मर भी गई थी तो उसके शव के साथ इस तरह की नाइंसाफी नहीं होती। खैर, जो हुआ सो हुआ लेकिन इससे भले ही किसी को कोई फर्क न पड़े लेकिन दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र मेरी पत्नी के सामने हमेशा शर्मसार रहेगा। 

Copyright @ 2019.