(12/09/2016) 
कर्मों की गति-
कहते है कि आदमी जैसा कर्म करता है वैसा फल प्राप्त करता है। कर्मों की गति गुह्य है,यदि मनुष्य कर्मों की गति को समझ ले तो विकर्मों से बच सकता है। आदमी अपने दुख का दोषारोपण अक्सर दूसरों पर करता है,लेकिन हर आत्मा के अपने कर्म ही उसके सुख-दुख का मूल कारण है, दूसरे व्यक्तितो निमित कारण बनते हैं।इसलिये गीता में भी लिखा है-जीवात्मा अपना ही मित्र है और अपना ही शत्रु है।

आइये जानते हैं कर्म के विधि-विधान के कुछ पहलु:

*कर्म के विधि-विधान अनुसार पाप कर्म और गलत कर्म करनेवाले की सुरक्षा करना या उसके दंड से बचने का प्रयत्न करनेवाले की सुरक्षा करना या उसके दंड से बचाने का प्रयत्न करनेवाला भी उस पाप कर्म में भागी होता है।इसी तरह से श्रेष्ठकर्म करने और श्रेष्ठ कर्म प्रेरणा की  देने वाले को भी उसश्रेष्ठ कर्म के फल में हिस्सा मिलता है।

*दुखी ,अशांत होना भी एक विकर्म है क्यूंकि इससे देहाभिमान और दुख के वाइब्रेशन प्रवाहित होते हैं,जो उस अनुरूप वातावरण का निर्माण करते हैं।जो अनन्य आत्माओं को भी उस अनुरूप प्रभावित करता है अर्थात सुख-दुख की अनुभूति करता है। इसलिये उस आत्मा की दुख -आशान्ति और बढ़ती जाती है।इसलिये हमें सदा खुश रहना चाहिये और उनकी दुआएं भी आपको मिलेंगी।

*शुभ संकल्पों से वायुमंडल शुद्ध होता है,तो व्यर्थ से दूषित होता है,जिसका बोझा आत्मा पर चड़ जाता है।

*बिना कारण के कोई कार्य नहीं हो सकता। इसलिये बिना जाने मनसा-वाचा किसी में कोई गलत निर्णय करने से भी आत्मा का पाप का खाता ब़ड़ता है.दूसरे के कर्मों का चिंतन ना कर,उसके कर्मों के विषय में निर्णय कर अपना समय और शक्ति व्यर्थ न गंवाओ।

*किन्ही व्यक्तियों के निर्णय में निमित आत्मा अंशमात्र भी स्वार्थपरता के वशीभूत निर्णय करता है,जिससे दोनो पक्ष प्रभावित होते हैंउसका हिसाब किताब बनता है और उसका फल उसे अवश्य भोगना पड़ता है।

*समर्थ होकर पाप कर्म का प्रतिरोध न करना भी पाप कर्म है।पाप कर्म या पापी की सराहना करना भी पाप कर्म है।समर्थ होते भी सत्य को प्रगट ना करना भी पाप कर्म है।

*पाप कर्म से अर्जित धन-सम्पति या साधन का उपभोग करना भी पाप कर्म है,उससे भी आत्मा का पाप का खाता बड़ता है।

*हम जब दूसरों के लिये अशुभ या बुरा सोचते हैं,हीन भावना रखते हैं तो ये भी पाप-कर्म है और उसका असर हमारे उपर अवश्य होगा जिसके प्रणामस्वरूप हमको दुख -आशान्ति की अनुभूति करनी होगी।जैसे गुम्बज में जो आवाज करते हैं,तो वही प्रतिध्वनित होकर हमारे पास आती है।

दूसरों को शिक्षा देना और स्वयं न करना भी एक पाप-कर्म है क्यूंकि इससे सिद्ध होता है कि वह उस कर्म की गति को जनता है परंतु करता नहीं है। इस प्रकार स्वयं को ही धोखा देता है। फिर भी किसी के कल्याण अर्थ जो शिक्षा देता है,उसका कुछ अच्छा फल भी मिलता है।

*अपने कर्म के लिये दूसरे को दोषी ठहरना भी विकर्म है और उससे हमारा जमा का खाता काम होता है।

किसी आत्मा को अच्छा  बुरा फल मिल रहा हैवह उसके पूर्व जन्मों का परिणाम है।इसलिये किसी की प्राप्तियों से न ईर्ष्या हो न घृणा और न आलोचना। ये भी विकर्म के है

जिसका परिणाम आत्मा को मानसिक परेशानी दुख के रूप में भोगना पड़ता है।


BK Poonam
Rajyoga Meditation Teacher

BrahmaKumaris World Spiritual University
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