(29/04/2017) 
बदलाव की राजनीति (दल-बदल)
सभी नेता, मंत्री जिसे देखो वो बदलाव की, विकास की बात करते हैं। लेकिन यह सब तो सिर्फ कहने की बात है। आज तो नेता बदलाव के नाम पर दल-बदल को बढावा दे रहे हैं।

दलबदल का यह खेल भारतीय राजनीति में कोई नई बात नहीं है। इसकी शुरूआत तो भारत के प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरु के कार्यकाल में शुरु हो गयी थी। जब उन्होंने केरल की सोशलिस्ट पार्टी सरकार में दलबदल कराकर कांग्रेस के समर्थन से सरकार बनाई थी। उसके बाद अपने राजनैतिक हितों की पूर्ति के लिए तोडफोड और दल-बदल कराकर सरकारें बनाना एक आम खेल हो गया है। इस दल बदलने की प्रक्रिया को आयाराम-गयाराम का नाम दिया जाता है। 

कुल मिलाकर कांग्रेस और भाजपा दोनों ही समय-समय पर अपने राजनीतिक हितों को कायम रखने या हितों की पूर्ति के लिए दलबदल का खेल खेलते रहे हैं। उदाहरण के तौर पर शाज़िया इल्मी का आम आदमी पार्टी को छोड कर बीजेपी में शामिल होना, नवजोत सिंह सिद्धू का बीजेपी छोड कर कांग्रेस को अपनाना और कांग्रेस की कदावर नेता रही रीता बहुगुणा जोशी ने भाजपा का दामन थामा। दल-बदल फिर एक बार देश में आम चर्चा का विषय है। जैसे कि कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष अरविंदर सिंह लवली ने हाल ही में दल-बदल की राजनीति को अपनाते हुए कांग्रेस छोड बीजेपी में शामिल हुए।

दल बदल को रोकने के लिए भी राजनैतिक चिंतक लोग समय समय पर पहल व प्रयास करते रहे हैं। लोकनायक जयप्रकाश की अध्यक्षता में आजादी के बाद पहली कमेटी का गठन हुआ था और इस कमेटी ने अपनी सिफारिश में निम्न बिन्दु रखे थे:-
1. दल बदल करने वाले की सदस्यता समाप्त हो।
2. दल बदल कराने वाले दल को भी अपराधी माना जाए और उसकी मान्यता समाप्त हो।
3. दल बदल करने वाले को पाँच वर्षों में से शेष बची अवधि तक कोई भी लाभ का पद न दिया जाए।परन्तु इसके बावजूद भी दल बदलने की प्रक्रिया मे कोई खास बदलाव नजर नहीं आ पाया।

कहने का अर्थ यह है कि लगभग सभी दल समय समय पर दल बदल के हथियार का प्रयोग करते रहे हैं फर्क केवल इतना है कि जब जिसकी सरकार गिरती है वह दल बदल की निंदा करता है और जब उसी पार्टी को दल बदल कराने का अवसर मिलता है तो वह अपने पुराने दुःख भूलकर उसी अनैतिक हथियार का इस्तेमाल करता है।

अब तो देश की जनता भी दल बदल को कोई  मुद्दा नहीं मानती है। अगर षंकर सिंह वघेला जो संघ के निष्ठावान सेवक थे दलबदल कर कांग्रेस के साथ आते हैं तो अल्पसंख्यक मतदाताओं को उन्हें धर्मनिरपेक्ष मानने में और वोट देने में कोई परहेज नही है और इसी प्रकार अगर कांग्रेस का नेता भाजपा समूह के साथ जाता है तो भाजपा के हिन्दु मानस के मतदाताओं को उसे वोट देने में कोई दिक्कत नहीं होगी।

आज दलबदल सत्ता परिर्वतन और सत्ता हथियाने का खेल बन गया है। जहाँ सभी नेता अपने हित के लिए आए दिन दलों की अदला बदली करते रहते हैं। उन्हें केवल अपना हित नजर आता है। यानी की अपना काम बनता तो भाड मे जाए जनता।

गीता
समाचार वार्ता
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