राष्ट्रीय (30/07/2015)
पढ़े चारदीवारी से कामयाबी की ओर बढ़ रही महिलाओ की जिंदगी के बारे में
ज़िन्दगी एक अनमोल कड़ी है पर इसे जीने का सही तरीका सबको नहीं आता | कुछ लोग ज़िन्दगी को काटते हैं तो कुछ इसे बोझ भी समझते हैं पर उन्ही में से कुछ सही तरीके से ज़िन्दगी की नाव को एक सही दिशा प्रदान करते हैं | "औरत " एक महत्वपूर्ण पहलु होती है ज़िन्दगी की | उसके बिना इस सृष्टि का निर्माण और सही तरीके से सृष्टि को चलाना असंभव है | औरत एक शक्ति है जो हर तरह की ज़िम्मेदारियों को बाकायदे निभाती है | आज का समय बहुत बदल चुका है,समय के साथ हमारी सोच भी बदल रही है |कुछ अरसे पहले औरतें चार दीवारी में बंद हुआ करती थी, एक बंद किताब की तरह | पर आज वही औरतें एक खुली किताब बन रहीं है , बनने के लिए आगे बढ़ रहीं हैं |आत्मदृढ़ता , संघर्ष के साथ अपने मंज़िल को पाने की कोशिश कर रही हैं | शिक्षा और नौकरी के क्षेत्र में महिलाएं काफी आगे निकलती जा रहीं हैं |चाहे वो सिविल सेवा हो या बैंकिंग या मेडिकल हो या इंजीनियरिंग कही भी उनका पलड़ा पुरुषों की तुलना में हल्का नहीं है | लेकिन कहीं न कहीं औरतों की ज़िन्दगी का सफर आसान नहीं है| उनकी दुनिया दो भागों में बँटी है , एक घर -परिवार की ज़िम्मेदारियाँ और दूसरी तरफ ऑफिस का काम | जब तक शादी नहीं होती है तब तक एक बेटी और एक बहन का किरदार निभाती है | शादी के बाद धर्मपत्नी , बहु और एक माँ का फ़र्ज़ निभाती है | इन सारे ज़िम्मेदारियों के बाद भी वो नौकरी के क्षेत्र में आगे बढ़ना चाह रहीं है और बढ़ रही हैं | पहले अलग बात थी जब समाज उन्हें अपने पैर की जूती समझता था अब महिलाओं ने अपने आप को समाज के सर का ताज समझने के लिए मजबूर कर दिया है | उन्होंने ये साबित कर दिया है वो पुरुष वर्ग से कम नहीं है | भारत सरकार भी लड़कियों और महिलाओं के लिए हर संभव सारी सुविधाएं देने की कोशिश कर रही है | नौकरी कर अपने पैरों पर खड़ा होना महिलाओं का उद्देश्य बन गया है | और ये सही भी है अपने मर्ज़ी और ख़ुशी में कुछ करने के लिए उन्हें किसी के आगे हाथ फ़ैलाने की जरूरत नहीं हैं | वो अपने मर्ज़ी से अपनी कश्ती को सही किनारा दे रही है तो गलत क्या है ?? हर इंसान को अपनी ज़िन्दगी अपने तरह से जीने का पूरा अधिकार है फिर महिलाएं अगर ये कोशिश कर रही हैं तो गलत क्या हैं ? हमारे समाज में अभी भी थोड़े निम्न - क्षुब्ध ख्यालातों वाले हैं जो औरतों को सिर्फ घर का श्रृंगार समझते हैं | बहुओं को एक घर का काम करने वाली मशीन समझते हैं | हमें मिलकर इन बचे-खुचे लोगों की मानसिकता को बदलना होगा उन्हें ये एहसास दिलाना होगा बहार भी हमारी एक नयी दुनिया हमारा इंतज़ार कर रही हैं | ये तभी संभव हैं जब हम सारी लडकियां , महिलाएं एक जुट होकर अपने उद्देश्य को अंजाम देंगे | घर वालों की दी हुई लोहे की ज़ंज़ीर को तोड़कर हम बहार निकलेंगे और कामक़ाज़ी महिलाओं का साथ देंगे | आज भी कुछ महिलाएं अपने पर हो रहे जुर्म को आँख बंद करके सह रही हैं , किस्मत की कमी समझकर बात को टाल रहीं हैं और जुर्म को बढ़वा दे रहीं हैं | उन चार दिवारी के बंधन में बंधी महिलाओं के लिए दो शब्द- "तोड़ दे वो ज़ंज़ीर अपनी जिसने बाँध रखा है तुझे , मत दो बढ़ावा जुर्म को .... बाहर निकल के तो देख एक नया उजाला है| उसमे छिपा तेरे लिए अनमोल खज़ाना हैं | खुदा ने पंख दिए है तुझे , बस उससे उड़ान भरना बाकी है .... अँधेरे से निकलकर तुझे बस उस उजाले में आना बाकी है |||| शवाना परवीन |
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