राष्ट्रीय (09/03/2016) 
फिर दोराहे पर जम्मू-कश्मीर
जम्मू कश्मीर में मुफ्ती मोहम्मद सईद के मरहूम हो जाने के बाद हालात इतने ज्यादा उलझ गए हैं, जिसकी किसी ने कल्पना तक नहीं की थी! दस महीने तक राज्य में सरकार चलाने वाले दोनों दल सरकार बनाने व गठबंधन के बने रहने की बात तो करते हैं लेकिन कोई भी यह दावा नहीं कर सकता कि घाटी को राष्ट्रपति शासन से कब छुटकारा मिलेगा। या कि मिलेगा भी अथवा नहीं। सियासी गलियारों से छन-छनकर जो बातें सामने आ रही हैं, उसके अनुसार राज्य में सरकार नहीं बन पाने के पीछे छुपा है महबूबा मुफ्ती के मन में पैदा हुआ डर। मुफ्ती साहब की अंत्येष्टि में उनके गांव के काफी सारे लोग शामिल नहीं हुए। महबूबा को इसके पीछे खतरे की घंटी सुनाई पड़ रही है। यह घंटी महबूबा के कानों में चौबीसों घंटे बजती रहती है। उन्हें डर है कि भाजपा को साथ लेकर वे यदि अगले पांच साल तक कुर्सी पर टिकी रहती हैं तो उनके पांच विधायक भी चुनकर नहीं आएंगे। ज्ञात हो कि पिता की मौत से दुखी महबूबा मुफ्ती ने चार दिन का शोक मना लेने के बाद जम्मू कश्मीर में सरकार बनाने की बात कही थी। वे चार दिन तो कबके बीत गये लेकिन न तो सरकार बननी थी और न ही बनी। आज लगभग दो महीने होने को आये। जम्मू-कश्मीर में राजनीतिक असमंजस बरकरार है। विस चुनाव में राज्य की सबसे बड़ी पार्टी बन कर उभरी पीडीपी सरकार बनाने पर फैसला नहीं कर पा रही है। जिसके चलते राज्य 10 महीने के बाद अचानक चुनी हुई सरकार विहीन है और राज्य फिर एक बार दोराहे पर खड़ा है। दरअसल, पीडीपी मुखिया महबूबा मुफ्ती भाजपा के साथ गठबंधन जारी रखने से कतरा रही हैं। हालांकि वह यह बात खुलकर कह भी नहीं रही हैं। राज्य के उपमुख्यमंत्री रहे डॉ. निर्मल सिंह को अभी भी भरोसा है कि एक बार फिर पीडीपी भाजपा गठबंधन की सरकार बनेगी, लेकिन वह भी यह दावा नहीं कर पाते कि यह सरकार कब बनेगी। 
बहरहाल, कहा जाता है कि चूल्हे पर भोजन आराम से पकाना चाहिए, स्वाद बढ़िया हो जाता है! लेकिन, ज्यादा पकाने से भोजन के जल जाने का खतरा भी बन जाता है। कुछ ऐसा ही चतुर महबूबा मुफ्ती के साथ हुआ लगता है! वह अपने ही बिछाए जाल में उलझती जा रही हैं। आखिर, 10 महीने चली पीडीपी-बीजेपी हुकूमत मुफ्ती साहब के बाद क्यों नहीं चल पा रही है ये एक बड़ा सवाल है! सरकार गठन पर जारी उहापोह से यूं कहे कि मामला, बीजेपी बनाम पीडीपी से हटकर जम्मू बनाम कश्मीर में तब्दील होता जा रहा है! जाहिर है कि पिछले साठ वर्षो के कश्मीर केंद्रित सियासत को जम्मू रीजन से पहली बार चुनौती मिली है। भाजपा के सभी विधायक जम्मू रीजन से ही चुने गये हैं। हिंदू बहूल जम्मू और मुस्लिम बहूल कश्मीर के इस पेंच में असल सवाल यही उलझ जाता है कि इस पूरी खींचतान में आम लोगों की परेशानी बढ़ती ही जा रही है। 
विधानसभा चुनाव में पीडीपी 27 सीटों के साथ सबसे बड़ी और भाजपा 25 सीटों के साथ दूसरी बड़ी पार्टी बनी थी और वैचारिक मतभेदों के बावजूद दोनों दलों ने एक कॉमन मिनिमम प्रोग्राम (सीएमपी) के तहत गठबंधन किया था। आतंकवाद के लिहाज से संवेदनशील राज्य जम्मू-कश्मीर में गठबंधन सरकार कुछेक विवादों को छोड़ दें तो ठीकठाक चल रही थी। पर बीच में ही सीएम मुफ्ती मो. सईद का निधन हो गया और पीडीपी की कमान महबूबा मुफ्ती के हाथ आ गई। महबूबा ने पहले कहा कि चार दिनों के शोक के बाद वह सरकार बनाएंगी। चार दिन बीत गए, लेकिन सरकार नहीं बनाई। अब दो महीने बीत गए। फिर भी सरकार नहीं बनी। पीडीपी की कई बैठकें हुईं। पार्टी विधायकों ने महबूबा को फैसला लेने का अधिकार भी दे दिया। लेकिन महबूबा निर्णय नहीं ले पा रही हैं कि वह भाजपा के साथ गठबंधन जारी रखेगी या नहीं? वे गठबंधन तोड़ भी नहीं रही हैं। हां, पीडीपी से भाजपा के लिए सीएमपी से अलग शर्तें आने लगी हैं। उधर, भाजपा की ओर से महासचिव राम माधव की मेहबूबा से कई दौर की भेंट इस दौरान हो चुकी है लेकिन मामला अभी भी जस का तस ही है।
पर्दे के पीछे चल रहे खेल जिसके चलते राज्य में सरकार गठन की प्रक्रिया लगातार लटकी हुई है। दरअसल, इसके पीछे पीडीपी की कुछ गैरवाजिब शर्तें हैं। भला यह कैसे हो सकता है कि भाजपा धारा 370, कश्मीरी झंडे, हुर्रियत से सीधी बातचीत, अफ्सा-कानून, भारत-पाक वार्ता में कश्मीरी भागीदारी, फौज द्वारा इस्तेमाल की जा रही जमीन की वापसी आदि मुद्दों पर पीडीपी की राय मान ले? यदि इन सब मुद्दों पर भाजपा कोई स्पष्ट लिखित या मौखिक आश्वासन दे देगी तो सारे भारत में उसकी प्रतिष्ठा चवन्नी की भी नहीं रह जाएगी। ऐसे में खुद को मिटाकर जम्मू कश्मीर में सरकार बनाने का तो सवाल ही नहीं। इसका मतलब यह नहीं कि दोनों पार्टियां मिलकर सरकार चला ही नहीं सकतीं। दोनों पार्टियों के पास दोनों के मिलने से बढ़िया कोई विकल्प नहीं है। आखिरकार, पीडीपी और भाजपा, जैसा कि मुफ्ती कहते थे, उत्तर और दक्षिण ध्रुव हैं ने दस महीने तक राज्य में सरकार चलाई ही है। वैसे देखा जाए तो जनादेश पीडीपी और भाजपा के पक्ष में है। इसलिए इन्हीं दोनों दलों की जिम्मेदारी बनती है कि वह सरकार बनाएं। बड़ी पार्टी होने के नाते पीडीपी की पहली जिम्मेदारी है कि वह सरकार बनाए। लेकिन यदि नहीं बनाना चाहती है तो राज्यपाल से स्थिति स्पष्ट करे। पीडीपी के बाद भाजपा की जिम्मेदारी बनती है कि वह विकल्प पेश करे। फिलहाल तो राज्य के हित में बेहतर यही है कि पीडीपी और भाजपा गठबंधन जारी रखें और सरकार बनाएं। बेवजह राज्य को असमय चुनाव में नहीं धकेलें। यहां यह भी ध्यान रखना होगा कि यदि जम्मू-कश्मीर विधानसभा आज भंग हो जाए और चुनाव हो जाएं तो पीडीपी और भाजपा, दोनों का ही कबाड़ा हो सकता है। इसलिए सरकार नहीं बनाकर मरने से कहीं अच्छा है, सरकार बनाकर मरना! उसमें से शायद जीने का कोई रास्ता निकल आए। वैसे कहना कठिन है कि मेहबूबा और माधव के मिलन से कोई सृजन होगा या विध्वंस।

बद्रीनाथ वर्मा
समाचार वार्ता
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