राष्ट्रीय (09/03/2016) 
शोचनीय: शौचालय के अभाव में बाह्य महिला यात्री हो रहीं शर्मसार
अम्बेडकरनगर। जिले का मुख्यालयी शहर है अकबरपुर जिसे नगर पालिका परिषद संचालित करती है। आबादी (जनसंख्या) गैर सरकारी आंकड़ों के अनुसार लाख-डेढ़ लाख से ऊपर। 25 वार्डों में विभक्त इस शहर में सार्वजनिक शौचालयों के न होने से बाह्य आगन्तुकों को दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। आवागमन एवं यातायात के मुख्य तीन साधन- पहला रेलवे, दूसरा- परिवहन निगम और तीसरा निजी टैक्सियाँ। अकबरपुर रेलवे स्टेशन उत्तर रेलवे का प्रमुख जंक्शन है- दो दर्जन के करीब दूरगामी एवं लोकल यात्री ट्रेनों का ठहराव है।
उत्तर प्रदेश परिवहन निगम का पुराना बस स्टेशन है अकबरपुर जिसे डिपो का दर्जा हासिल है। 60 बसों का बेड़ा है जो यात्रियों को दिल्ली-वाराणसी-कानपुर-लखनऊ-इलाहाबाद सहित कादीपुर-सुल्तानपुर, फैलाबाद-बस्ती-बहराइच-गोण्डा-आजमगढ़-गोरखपुर आदि बड़े-छोटे शहरों की यात्राएँ कराता है। निजी छोटे-बड़े वाहन जो टैक्सी के रूप में संचालित होते हैं इनकी संख्या अनगिनत है। आधा दर्जन से अधिक नाकों पर स्थापित टैक्सी स्टैण्डों से ये छोटे-बड़े वाहन लोकल यात्रियों को उनके गन्तव्यों तक पहुँचाते हैं। बावजूद इस सबके शहर में कोई सार्वजनिक शौचालय नहीं है जहाँ यात्रीगण फ्रेश हो सकें। एक मात्र सार्वजनिक सुविधा शौचालय जो बस स्टेशन पर स्थित है को छोड़कर। 
पुरूष तो इस से येन-केन-प्रकारेण निबट सकते हैं लेकिन महिला यात्रियों को कितनी दिक्कतें पेश आती हैं इसे वह ही समझ सकता है जो भुक्तभोगी होगा। अर्सा पहले की बात है डॉ. भूपेन्द्र सिंह गर्गवंशी का एक लेख पढ़ा था जिसमें शौचालय समस्या को उन्होंने बखूबी उठाया था। यह कोई आवश्यक तो नहीं कि कहानीकार, लेखक, व्यंग्यकार जो कुछ लिखे उसको व्यवस्था शीर्ष पढ़े ही- और यदि पढ़ें तो अमल करें................? उनके सम्मुख भी दिक्कतें हो सकती हैं। प्रशासन की बात से अलहिदा सोचा जाए तो इस तरह के निर्माण कार्य/परियोजनाएँ सरकार द्वारा संचालित किए जाते हैं जिनका मसौदा जनता द्वारा चयनित प्रतिनिधि तैयार करते हैं। हमारे शहर में शौचालयों का निर्माण कराया जाए या न कराया जाए इस पर तो नपाप के पदाधिकारियों (पार्षदों/सभासदों) को ध्यान देना होगा। 
शौचालय निर्माण पर जोर देने वाली केन्द्रीय सरकार ने विद्या बालन को ब्राण्ड अम्बेस्डर बनाया है और टी.वी. पर जहाँ सोच वहाँ शौचालय जैसा स्लोगन डायलॉग बोलकर शौचालय निर्माण की प्रेरणा देती हैं- वहीं इस स्लोगन की शहर के सार्वजनिक क्षेत्रों में अनदेखी किए जाने से स्थिति शोचनीय बन गई है। अकबरपुर बस स्टेशन क्षेत्र में एक सार्वजनिक सुविधा शौचालय और एक परिवहन निगम डिपो के अन्दर आधुनिक शौचालय निर्मित है फिर भी यात्रीगण अगल-बगल के रिहायशी इलाकों में जाकर लोगों के घरों की कॉलबेल बजाकर उनके निजी टॉयलेट का इस्तेमाल करने की मिन्नतें करते हैं। स्थिति और भी दर्दनाक शर्मनाक हो जाती है जब शौचालयों के इस्तेमाल के महिलाएँ आग्रह करती हैं। 
टकबरपुर रेलवे स्टेशन, बस स्टेशन पर स्थित शौचालयों का प्रयोग वे ही कर पाते हैं जिन बाह्य यात्रियों के साथ की टीम इनके परिसरों/प्रतीक्षालयों, प्लेटफार्मों पर बैठे हों। बस स्टेशन (टाण्डा रोड अकबरपुर) के उत्तरी क्षेत्र में रूकने वाली बसों से यात्रा करने वाले यात्रीगण दीर्घ/लघुशंका से निवृत्त होने के लिए इधर-उधर शौचालयों की तलाश करते देखे जा सकते हैं। इस इलाके के भाई लोग हैं जो उनसे कालोनी में जाकर अमुक घर में अपनी हाजत से फारिग होइए कहकर उन यात्रियों के साथ भद्दा मजाक वह भी पीड़ा दायक करते रहते हैं। सीधे बता दें कि सार्वजनिक सुविधा शौचालय/आधुनिक शौचालय बस स्टेशन परिसर चले जाएँ और फ्रेश हो लें शायद यही उचित होगा- लेकिन नहीं ऐसा कहरना उनकी संस्कृति में ही नहीं हैं- वे तो महिला यात्रियों को शौच पीड़ा से उलझन में पड़ा देखकर ही आनन्दित होते हैं। बाह्य यात्री उनके लिए अतिथि देवो भव नहीं होता। इस इलाके के भाई लोगों की ऐसी प्रवृत्ति से प्रतीत होता है कि ये सभी मनोरोगी ही हैं। 
शौच की उलझन में पड़े यात्रियों विशेषकर महिलाओं को देखकर बस स्टेशन अकबरपुर टाण्डा रोड के किनारे के दुकानदार और मजनू ब्राण्ड लाखैरे/शोहदे फिकरे कसते दारूबाज हंसते खिलखिलाते नजर आते हैं। तब......खैर छोड़िए- इसमें पुलिस और ला एण्ड आर्डर की बात ही करना बेमानी है। यह तो गिरी हुई मानवता का सवाल है। ठेला/खोमचे वालों की तो बात ही दूर- स्थाई दुकानदार- भी शौच पीड़ा से निजात कैसे पाई जाए इस बावत उचित मार्ग दर्शन न कराकर शोहदों और हृदयहीनों जैसी भूमिका निभाते हैं। 
बहरहाल- अकबरपुर जैसे शहर जो कभी ग्रामीण बाजार हुआ करता था- कालान्तर में कस्बा और अब कथित शहर वह भी जिला मुख्यालयी शहर- घनी आबादी- सड़क के दुकानदार और आबादी में रहने वाले कतिपय लोगों के आचरण एक से। पुरूष यात्रियों का क्या वे लोग कहीं भी आड़ का सहारा लेकर लघुशंका से निवृत्त हो जाते हैं लेकिन सड़क के किनारे खड़ी शोहदों की टोली की घूरती निगाहों से शर्मसार होने वाली महिलाएँ भला अपनी शंका कैसे मिटाएँ- इसके लिए शौचालय, पेशाबघर तो होना ही चाहिए। 
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