मनोरंजन (16/07/2022) 
तरुणा पुण्डीर "तरुनिल" की कलम से - वीर वधू
तुम अकेले आते तो बाहों का हार पहनाती,
ये जन-सैलाब साथ लाये हो,
कहो मन की बात कैसे कहती ?
शहादत पर तुम्हारी मैं आँसू नहीं बहाऊंगी,
शरीर ही तो गया है!
मैं तो यहीं हूँ ; तुम्हारी "शक्ति",
गर्व है मुझे की "वीर वधू "हूँ,
बस बनना नहीं चाहती, 
अखबारों की सुर्खी!

अभी तो चारों तरफ,
नारों की गूंज है,
तुम्हारे "बलिदान के उत्सव" की धूम  है।
हमारे मिलन के लिए ,
चाहिए थोड़ी खामोशी,
क्या हुआ गर मेरे साथ तुमने, 
एक पूरा वसंत भी नहीं देखा,
क्या हुआ गर नहीं सुनी ,
अपने आँगन की किलकारी!
इसी किलकारी को बनाकर चिंगारी
ये "वीर वधू"करेगी प्रतिशोध की तैयारी।

तुम्हें मिली शहादत की कीर्ति,
मैंने वैधव्य का गौरव पाया है,
कैसे कह दूँ मैं हूँ रीती,
मैंने तो तुम्हारे लहू से,
अपनी अमर मांग को सजाया है।
पहनी हैं हाथ में खनकती गोलियाँ,
जिनसे मेरा सुहाग दुश्मन को, 
छलनी कर आया है!।

©तरुणा पुण्डीर "तरुनिल"
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