राष्ट्रीय (30/04/2010) 
जब हम वस्तु से प्रेम करते हैं और मनुष्य का उपयोग

दैनिक जिंदगी में प्राय: ऐसी घटनाएं देखने-सुनने में आती हैं कि किसी नौकर से कोई चीज टूट गई या कुछ नुकसान हो गया तो मालिक ने उसको अमानवीय यातनाएं दीं। पिछले दिनों ऐसे मामले भी प्रकाश में आए हैं कि ऐसी यातनाओं के कारण नौकर या नौकरानी की मृत्यु तक हो गई। इस प्रकार की यातना का शिकार घर के बच्चे और विशेष रूप से बहुएं भी होती देखी गई हैं। ये घटनाएं न केवल गांवों और कस्बों तक सीमित हैं, बल्कि बड़े-बड़े शहरों और महानगरों में भी बेहद आम हैं। इस प्रकार की हरकतेंकेवल अशिक्षित अथवा अल्पशिक्षित लोग ही नहीं करते, समाज के शिक्षित और आजकी भाषा में कहें तो प्रफेशनल और समृद्ध लोग भी ऐसी हिंसा और असहनशीलता का प्रदर्शन बात-बात पर करते हैं। इसमें महिलाएं भी पीछे नहीं हैं। क्या एक कप, प्लेट या गिलास की कीमत कभी भी एक व्यक्ति की जान से ज्यादा महत्वपूर्ण हो सकती है? कभी नहीं। फिर क्यों ऐसा होता है कि हम थोड़े से आर्थिक नुकसान के लिए भी किसी की जान लेने से नहीं हिचकिचाते? किसी की जान लेने का अर्थ है जिंदगी भर जेल की सलाखों के पीछे सड़ना या फांसी। क्या कारण है कि हम विवेक से काम न लेकर दूसरों का और स्वयं अपना जीवन भी संकट में डाल देते हैं? जीवन को संपूर्णता से जीने के लिए जरूरी है कि व्यक्ति वस्तुओं का उपयोग करे और मनुष्यों से प्रेम करे। हम वस्तुओं से प्रेम करने लगे हैं और मनुष्य का उपयोग। व्यावहारिक स्तर पर आज उसका उलट हो रहा है। मनुष्य भौतिक वस्तुओं के लिए जान न्यौछावर करता है, लेकिन मनुष्य के लिए भावना शून्य हो जाता है। व्यक्ति जिन वस्तुओं का संग्रह करता है, उनके प्रति मोह पैदा होना स्वाभाविक है। इसी मोह के कारण जब वस्तु उसके हाथ से निकलती है तो उसेपीड़ा होती है। इस भौतिकवादी युग में पैसा या उससे प्राप्त वस्तु ही सबसे अधिक महत्वपूर्ण हो गई है। जब उससे वंचित होना पड़ता है तो बर्दाश्त नहीं होता और इस असहनशीलता के भयंकर परिणाम होते हैं। अपरिग्रह को जानने के लिए योग को जानना जरूरी है। योग के आठ अंग हैं जो  क्रमशरू यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान तथा समाधि हैं। योग की शुरुआत होती है यम से। यम की परिभाषा है रू श्अहिंसा सत्यास्तेय ब्रह्मचर्यापरिग्रहारू यमारूश् अर्थात अहिंसा, सत्य, अस्तेय (चोरी न करना), ब्रह्माचर्य तथा अपरिग्रह का पालन ही यम है। अपरिग्रह यम का अनिवार्य अंग है। जीवन में यम का समावेश और यम में अपरिग्रह का समावेश नहीं है तो कैसा योग? इनके अभाव में आसन, प्राणायाम तथा ध्यान व योग के अन्य अंग निरर्थक हैं। अपरिग्रह से तात्पर्य है वस्तुओं का संग्रह न करना या कम से कम आवश्यकता से अधिक वस्तुओं का संग्रह न करना। वस्तुएं नहीं होंगी तो कोई क्लेश नहीं होगा। वस्तुओं के अभाव में न चोरी का भय, न खो जाने की आशंका तथा न पुरानी होकर बेकार हो जाने की चिंता। जीवन में जितना अपरिग्रह का पालन किया जा सकेगा, व्यक्ति उतना ही अहिंसक तथा सत्य के निकट हो सकेगा। अहिंसा और अपरिग्रह तो मानो एक ही सिक्के के दो पहलू हों। अपरिग्रह है तो हिंसा नहीं। परिग्रह वृत्ति के कारण ही हिंसा और उसके दुष्परिणाम भोगने पड़ते हैं। मनुष्य जिससे प्रेम करता है, अपना सर्वस्व उसे सौंप देता है। तन, मन और धन से समर्पित हो जाता है। यदि हम मनुष्य से प्रेम करना सीखें तो अपरिग्रह की वृत्ति का भी विकास होगा। अपरिग्रह से अहिंसा का पालन संभव होगा। जीवन को आनंदपूर्ण बनाने के लिए, उसे संपूर्णता प्रदान करने के लिए जरूरी है कि हम वस्तुओं का उपयोग करना सीखें तथा मनुष्य से प्रेम करना सीखें, न कि वस्तुओं से प्रेम और मनुष्य का उपयोग।
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