राष्ट्रीय (05/06/2010) 
जाति आधारित जनगणना और तुरूप का पत्ता....

जनगणना में जाति को शामिल करने के लिए देश के नेताओं ने अपनी सहमति जता दी है। गिने चुने नेता ही इसके विरोध में खड़े हैं और इसे रोकने के लिए बुद्धिजीवी वर्गों से अपील कर रहे हैं। यूपीए सरकार के नेतृत्व में इस अभूतपूर्व योजना को साकार करने के लिए प्रतिपक्ष भारतीय जनता पार्टी की भी सहमति बन चुकी है। इस जाति आधारित जनगणना को लेकर जनता खुश हों या न हों लेकिन देश के नेता खासे उत्साहित हैं। देश में आर्थिक और राजनीतिक स्तर पर विभाजित समाज की नब्ज को टटोलने में नेताओं की इतनी दिलचस्पी आखिर क्यों है? देश के बुद्धिजीवी वर्गो ने राजनीति में जातिवाद और समाजवाद का गठजोड़ भविष्य के लिए खतरनाक बताया है। गांधी, अम्बेडकर और लोहिया ने कभी सपने में भी नहीं सोचा होगा कि इस देश में आज जातिवाद भयानक रूख अख्तियार कर लेगा। लेकिन उनके पैरोकार इस जाति आधारित जनगणना को समुद्र मंथन के रूप में देख रहे हैं और इस मंथन से निकलने वाले आश्चर्यजनक तथ्यों रत्नों के इंतजार में अभी से पलके बिछाए हैं। सामाजिक बदलाव के नाम पर पर किये जाने वाले इस जनगणना से सामाजिक बदलाव भले ही न हों लेकिन जाति आधारित जनगणना के आंकड़े देश की राजनीति की नई दिशा तय करने में अहम साबित होंगे। देश में कई राजनीतिक पार्टियों का अस्तित्व जातिगत राजनीति के बल पर है। उन राजनीतिक दलों के लिए इस जनगणना का निस्कर्ष तुरूप का पत्ता साबित होगा या फिर उनके लिए सिरदर्द भी बन सकता है। क्योंकि क्षेत्रीय स्तर पर और भी कुनबे उभरकर आ सकते हैं। आजादी के तीसरे दशक में भारत को वैश्विक मंच का हिस्सा बनने के लिए देश में आर्थिक विकास का बढ़ावा दिया गया। फलतः देश में तेजी से नगरीकरण और औद्योगिकरण का विस्तार होने लगा और यह अब भी जारी है। इस बदलते आर्थिक परिवेश को सामाजिक और राजनीतिक परिवेश से अलग रखकर कर्म संस्कृति को विकसित किया गया। इस परिवेश में कर्म के बल पर, प्रतिभा के बल पर आपकी हैसियत तय की जाती है। यहां जाति और धर्म के लिए जगह नहीं है क्योंकि यह परिवेश समाजवाद को अपने करीब आने नहीं दिया। यही कारण है कि बहुत ही कम समय में भारतीय अर्थवाद की पहचान वैश्विक स्तर पर है। यह भी सत्य है कि भारतीय अर्थवाद ने ही देश की सामाजिक और आर्थिक विषमताओं पर प्रहार करने का भरपूर प्रयास किया है। जिसके प्रतिफल के रूप में पिछले तीस सालों में आये सामाजिक-आर्थिक बदलाव को पांच दशक पूर्व के सामाजिक-आर्थिक परिवेश से तुलना करके आप देख सकते हैं। दुनिया के हर देशों में वक्त के साथ समाज के स्वरूप में भी बदलाव आते रहे हैं। यह भारतीय समाज पर भी लागू होता है। 21वीं सदी का समाज 20वीं सदी से भिन्न है। लेकिन भारतीय समाज सदियों पूर्व बोई गई जातिवाद की बुनियाद पर ही खड़ा है। सबसे बड़ी बात है कि देश के नेतागण भारतीय समाजवाद को जातिवाद से अलग नहीं करना चाहते हैं। क्योंकि भारत की राजनीति जातिवाद और समाजवाद के गठजोड़ पर केन्द्रित है। आजादी के छह दशक बाद भी जाति को समाप्त करने के बजाय यहां के नेता जाति को देश की राजनीति का मुख्य आधार बनाने पर तुले हैं। इसपर सभी नेताओं की अपनी-अपनी दलीलें हैं। बुद्धिजीवी वर्ग आशंका व्यक्त कर रहे हैं कि जाति आधारित जनगणना से फायदा कुछ नहीं होने वाला है बल्कि समाज में एक गलत संदेश जायेगा। समाजवाद और जातिवाद का घिनौना गठजोड़ देश को रसातल में ले जाएगा। दुर्भाग्य इस बात की है कि कभी भी जाति और धर्म की राजनीति नहीं करने वाले नेताओं ने भी चुपचाप इसपर हामी भर दी है। उनकी राजनीतिक मजबूरियां चाहे जो हो लेकिन भारतीय जनमानस में एक संदेश जरूर गया कि कोई भी राजनीतिक दल और नेता जातपात की राजनीति से अछूता नहीं रहा। एक समय था जब देश के भूतपूर्व प्रधानमत्री वीपी सिंह ने मंडल कमीशन की सिफारिश पर पिछड़ों को 27 फीसदी आरक्षण देने की घोषणा की थी कि तब बीजेपी, कांग्रेस समेत कई राजनीतिक दलों ने इसका पूरजोर विरोध किया था। सच तो यह है कि इस आरक्षण के सहारे भविष्य में की जाने वाली राजनीति की जमीन तैयार की जा रही थी। उस समय जाति को एक हथियार बनाकर राजनीति में उतरने वाले नेता आज जाति की अहमियत को पूरी तरह समझ चुके हैं और जातिवाद से उपजे फसल को काटने की होड़ में लगे हैं। आज किसी भी राजनीतिक पार्टियों के सिद्धात, विचारधारा अब लोगों को उतना प्रभावित नहीं करती है। क्योंकि राजनीतिक पार्टियां अपनी विचाधाराओं पर खुद ही दिग्भ्रमित हो चुकी है। यही कारण कि जनता पर उनकी पकड़ ढीली होती जा रही है। देश में विखण्डित जनादेश की सबसे बड़ी सच्चाई यही है। यह सच है कि जातियां भारत में सदियों से है और भविष्य में भी रहेगी। भारत में जाति ही सामाजिक स्तरीकरण का मुख्य कारण है। लेकिन अब जाति को देश के नेताओं ने राजनीति का मुख्य हथियार बनाने की मंशा जता दी है। नहीं तो कांग्रेस, बीजेपी एवं अन्य राजनीतिक पार्टियां खुद को इस मामले से दूर ही रखती। शायद जातिवादी राजनीति से सबसे बड़ा खतरा इन्ही बड़ी पार्टियों को है। क्योंकि राजनीति में छोटे-छोटे कुनबे जो उभरकर आये हैं, वह राष्ट्रीय स्तर पर कभी उठ नहीं सकते लेकिन क्षेत्रीय स्तर पर कभी भी राष्ट्रीय स्तर की पार्टियों को उठने नहीं देते। उत्तर प्रदेश, बिहार एवं हिन्दी भाषी क्षेत्रों में जाति का वर्चस्व है। इन राज्यों में जातीय समीकरण ही सत्ता निर्धारण में सहायक हैं। मंडल कमीशन की लहर के बाद भारतीय राजनीति में जातिवाद इस कदर हावी है कि जातीय वर्चस्वता वाले क्षेत्रो में कांग्रेस और बीजेपी को कोई चारा नहीं चल रहा है। हालांकि जातीय समीकरणों के जोड़तोड़ में बीजेपी और कांग्रेस पार्टी भी पीछे नहीं रही लेकिन सफलता बहुत कम ही हाथ लगी है। शायद यही सोचकर बड़ी पार्टियां भी इस जातिवादी राजनीति में उतर गई है और जातिगत जनगणना को तहेदिल से स्वीकार कर लिया है। आज आम जरूरतों के मुकाबले जाति की उतनी जरूरतें नहीं है। अब सिर्फ धार्मिक-सांस्कृतिक औपचारिकता पूरी करने के लिए जाति की जरूरत पड़ती है। लेकिन देश के नेता जाति को एक मुख्य राजनीतिक जरूरत के रूप में पेश कर रहे हैं। आज देश में कई गंभीर मुद्दे हैं। भारत में 70 करोड़ लोग असंगठित क्षेत्रों में काम करते हैं और उनकी दैनिक आय 20 रूपये हैं। सरकार की अदूरदर्शी नीतियों के कारण दिन प्रतिदिन वे गरीबी की दलदल में धंसते जा रहे हैं। कम आय के कारण उनकी दैनिक जरूरतें पूरी नहीं हो रही है। मौलिक जरूरतों से वे महरूम हैं। उचित शिक्षा, स्वास्थ्य....उनके बूते से बाहर है। इस सामाजिक-आर्थिक विषमता को दूर करने के लिए नेता कभी एकजूट नहीं होते। लेकिन जातिगत जनगणना के मसले पर राजनीतिक दल ऐसे एकजूट हुए हैं कि जैसे जाति ही इस देश का सबसे बड़ा विकासात्मक कारक है और इसके बिना भारत की पहचान वैश्विक स्तर पर अधूरी है। -अजय के गौतम

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