(14/04/2017) 
क्या दलित "दलित" है?
दलित समाज को लगातार विकास की राह पर लाने की बात की जाती रही है परन्तु क्या दलित को दलित का भी अधिकार मिल पा रहा है यह एक गम्भीर विषय है दलित समाज में दलित चेतना के प्रति जो नवऊभार हो रहा है वह कही न कही हमें दलितों की स्थिति पर सोचने के लिए मजबूर कर रहा है। दलित समाज के लिए सन् 1989 में अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति नामक अधिनियम भारतीय संसद ने पारित तो कर दिया परन्तु इस अधिनियम ने दलित वर्ग की कितनी रक्षा की है और कितना सहज महसूस कराया है इस पर कुछ कह पाना मुश्किल है क्योंकि हर दूसरे या तीसरे दिन दलितों से जुड़ी कोई न कोई नयी घटना सामने आती है जिसने दलित समाज में एक भयावह और नफरत की भावना को जन्म दिया है।

 दलितों के प्रणेता कहे जाने वाले और दलितों के ही क्यों सम्पूर्ण भारतीय समाज के प्रणेता और संविधान निर्माता डाॅ भीमराव अम्बेडकर ने संविधान निर्माण के जरिए लोकतंन्त्र की जो भूमिका भारतीय समाज में प्रस्तुत करना चाही थी वो इस नरफरत से किस हद तक असफल हो रही इसके कयास लगाना सम्भव नहीं है।
            भारतीय जनगणना 2011 के अनुसार भारतीय जनसंख्या का 16.6 प्रतिशत अर्थात्  20.14 करोड़ दलित देश में निवास करते है। जिनमें सें दलित साक्षरता की दर 50.70% है और महिला साक्षरता दर 41.90% है । ये आँकड़े वास्तविकता को किस हद तक परिभाषित कर रहे है इसका पता इस बात से लग जाता है कि आज भी दलित को गाँव के उस नल पर पानी लेने जाना पड़ता है। जहाँ कोई उच्च जाति का व्यक्ति जल का सेवन न करता हो,आज भी दलित छात्रों के आत्महत्या की खबरे लगातार सामने आती रही है , अधिकतर दलित स्त्रियों को आज भी परिवार चलाने के लिए दिहाड़ी मजदूरी करनी पड़ती है परन्तु इन्हीं आँकड़ों का चुनावों में कितना बेहतर और सटीक इस्तेमाल किया जाता है यह राजनीतिक पार्टियाँ बखूबी समझती है।
                                                                                                                                                         हर बार दलित को वोट बैंक समझकर इस्तेमाल किया जाता है और नतीजों के बाद  सिर्फ उन पर हो रहे अत्याचारों को दरकिनार किया जाता है और जिससे  समाज में एक असंतुलित स्थिति जन्म ले लेती  है इससे उबरने के लिए दलित ने शुरूआत से ही अपनी आवाज उठाने की कोशिश की  है और कई आंदोलन भी किये गये है परन्तु हर बार उनके हाथ या तो सरकार का आश्वासन आया है या फिर गहरी निराशा जिसने दलित समाज को भारतीय समाज से अलग होता महसूस कराया है ।
                कई बार आरक्षण की नीति को लेकर दलित समाज को घेरे में लिया जाता है को उच्च वर्ग को यह लगता है कि आरक्षण की मार से वह पीछे रह जा रहा है और दलित समाज की वजह से ही उसे रोजगार का अवसर नहीं मिल पा रहा है परन्तु इस विषय पर गहराई से सरकार को सोचना चाहिए कि किस तरह इस व्यवस्था में संतुलन बनाया जाए और दलित और सवर्ण वर्ग के बीच की इस दूरी को कम करने का प्रयास किया जाए जिससे बाबा साहेब के लोकतन्त्र की भूमिका स्पष्ट हो सके दलित समाज को आज भी जिस हीन भावना से देखा जाता है वह निराशाजनक है उसका अन्त आखिर कब होगा दलित भी एक सामाजिक प्राणी है अन्त में फिर से वही सवाल उठता है कि दलित को इन्साफ कब अगर सवर्णों  को सवर्ण का अधिकार है दलितों को दलित का अधिकार क्यों नहीं?

तेज बहादुर सिंह
समाचार वार्ता
दिल्ली विश्वविद्यालय

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