(14/04/2015) 
प्रवासियों का दर्द समझना पत्रकारों का धर्म
नई दिल्ली, प्रवासी शब्द का बहुत बृहद अर्थ हे। इसके मूल में जाने के बाद ही उसके दर्द को समझा जा सकता है। हम सभी लोग प्रवासी हें इसलिए किसी भी समाजपयोगी कार्यों को सिर्फ प्रवासी के दायरे में ही बांधा नहीं जा सकता।

संस्थाओं को थोडा अलग सोचकर काम करना होगा तभी सबका भला होगा। यह बात पत्रकारों की समस्याएं पर चर्चा और सुझाव के बाबत आयोजित एक कार्यक्रम में वक्ताओं ने कही। गांधी शांति प्रतिष्ठान में अखिल भारतीय प्रांतीय प्रवासी एवं दलित विकास मंच के रविवार शाम आयोजित इस कार्यक्रम में वरिष्ठ पत्रकार रामबहादुर राय, अरविंद मोहन, असरार खान, समाचार वार्ता राजीव निशाना, आज समाज शम्स शाहनवाज, पंजाब केसरी गजेंद्र चैहान, वंदे मातरत मुर्शीद करीम, उज्जल दुनिया मनोज सिंहा, सहारा समय आलोक, सांई सेना टाईम्स सुरजीत सिंह के साथ ही विशेष आमंत्रितों के रुप में आप नेता प्रो आनंद कुमार, आचार्य कृपलानी ट्रस्ट के अभय प्रताप, समाजवादी नेता राजवीर पंवार, पूर्व विधायक रघुनाथ गुप्ता सहित भारी संख्या में लोग मौजूद थे। विषय प्रवेश मंच के अध्यक्ष गोपाल झा जबकि संचालन जनसत्ता के अमलेश राजू ने की। 
रामबहादुर राय ने कहा कि किसी भी संस्था का उद्देश्य स्पष्ठ होना चाहिए। पत्रकारिता का मंच है तो सपना दिखाने से ज्यादा योग्य पत्रकार बनाने की दिशा में काम होना चाहिए। जहां तक प्रवासियों का सवाल है तो पहले उनका सर्वे होना चाहिए पर उनके सामने आने वाली समस्याओं का वर्गीकरण कर उसपर रुपरेखा तय कर उस दिशा में काम शुरू करने की जरूरत है। राय ने कहा कि सिर्फ सरकार के भरोसे पत्रकारों की समस्याओं को छोडना ठीक नहीं हें। स्वतंत्र पत्रकारों के सामने अलग समस्या है और किसी संस्थान में काम करने वाले पत्रकारों के सामने अलग। दोयम दर्जे की बातों से अलग लक्ष्य निर्धारित कर इस दिशा में काम करने की जरूरत हे। 
अरविंद मोहन ने कहा कि प्रवासियों की समस्या अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग है। एक पत्रकार के तौर पर पूरे प्रवासियों के दर्द को समझना होगा। पंजाब में प्रवासियों के हालात से लेकर देश के अन्य राज्यों पश्चिम बंगाल, बिहार, उत्तप्रदेश, मध्यप्रदेश, झारखंड के साथ ही राजधानी दिल्ली में रह रहे प्रवासियों पर सोचना होगा। प्रवासी मजदूरों की पीडा को नजदीक से देखने का उन्हें मौका मिला हे इसलिए वे दावे से कह सकते हें कि पत्रकारिता को भी प्रवासियों के दायरे से अलग हटकर इसे गंभीरता पूर्वक सोचने की जरुरत है। जहां तक पत्रकारों के जीविकोपार्जन और मूलभूत सुविधाओं का सवाल हे तो इसके लिए बडी लडाई लडने के लिए संगठनों को तैयार रहना होगा। 
प्रो आनंद कुमार ने कहा कि पत्रकार लोकतंत्र के पहरुआ है। बाबजूद इसके पत्रकारों के सामने आने वाली कठिनाईयों को जानते समझते खूबसूरती से उनके अधिकारों का  हनन किया जा रहा है। पत्रकारों को सभी राजनीतिक, धार्मिक, सांस्कृतिक संगठन अपने हिसाब से चलाना चाहती हे। मेरा तो मानना हे कि अगर पत्रकार देश दुनिया के लिए पूरा जीवन न्योछावर कर रहे हें तो उनके बच्चों के नामांकन से लेकर, उनके स्वास्थ्य, सुरक्षा की गारंटी संबंधित एजंसियों और सरकार को देना चाहिए। 
शम्स शाहनवाज ने ईमानदारी से पत्रकारिता करने वालों की समस्याएं रखते हुए मुश्किल हालातों में लोकतंत्र के चोेथे स्तंभ पर दिल्ली सरकार की गिद्ध दृष्ठि की बातें कही। आलोक ने नई-नई तकनीक के नाम पर पत्रकारिता का मजाक उडाने और चटपटी खबरों के नाम पर भेंडेपन का जिक्र किया। राजीव निशाना ने केंद्र और दिल्ली सरकार की नीतियों पर सवाल उठाते हुए कहा कि जीविकोपार्जन के तरीके को भी इन सरकारों ने अपने हिसाब से परिभाषित करने का बीडा उठा लिया हे। मुर्शीद करीम ने डीएवीपी से लेकर एबीसी की विश्वसनीयता पर चर्चा की। और अंत में धन्यवाद ज्ञापन दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रो अनिल ठाकुर ने किया।

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