(10/05/2015) 
भारतीय संस्कृति सम्पूर्ण विश्व के मानसमात्रा को सुखी और शांत बनाने में सक्षम-साध्वी वैष्णवी भारती
दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान की ओर से श्रीमद् भागवत महापुराण कथा नवाह ज्ञानयज्ञ के द्वितीय दिवस में आशुतोष महाराज की शिष्या साध्वी वैष्णवी भारती जी ने प्रथम स्कंध् का वर्णन किया। जिसमें वेदव्यास जी के असंतोष के विषय में बताया।

नारद मुनि द्वारा दीक्षा प्राप्त करने पर वह अठारहवें पुराण 'श्रीमद् भागवत' पुराण की रचना करते हैं।महर्षि वेदव्यास भारतीय इतिहास की उन अनुपम निध्यिों में से हैं जिन्होंने धमक एवं सांस्कृतिक जागरण द्वारा निखिल विश्व के जनमानस को अनुप्राणित किया क्योंकि भारतीय संस्कृति का वर्तमान स्वरूप महष वेदव्यास के द्वारा सम्हाला एवं सजाया गया है। संसार में संभवतः इतना बड़ा कवि और इतना बड़ा विद्वान न कभी हुआ है और न होगा। यह अनादि सनातन संस्कृति आज महर्षि व्यास के पुराणों, दर्शन एवं महाभारतादि ऐतिहासिक महाकाव्यों पर ही अबलंबित है। इतिहास पुराणों की महान आयोजना, प्राचीन युगों की दुष्प्राप्य कला और विद्यााओं को जीवित रखना, वेद और वेदांगो की सरल व्याख्या, संकलन, सम्पादन, संशोध्न एवं विभाजन करके वेदव्यास ने हमारी संस्कृति को अक्षुष्ण रखाम्बत है।व्यास का भारतीय संस्कृति पर इतना भारी ट्टण है कि वह उनसे कभी भी उट्टण नहीं हो सकती। व्यास प्रणीत साहित्य यदि हमारी संस्कृति से अलग कर दिया जाय तो हमारी यह अनादि सनातन संस्कृति भी निष्प्राण हो जायगी। महर्षि व्यास भारत की चिरजीवी संस्कृति के दिव्य चक्षु और दिव्य रत्न हैं। व्यास जी का वैदिक साहित्य के सम्पादन, वेदान्त-दर्शन के निर्माण एवं नाना पुराणों के संकलन तथा महाभारत जैसी अमूल्य निध् िके भगीरथ कार्य-प्रचालन से भारतीय संस्कृति को महान योग मिला है वेदव्यास की इस महती निध् िका आज तक जो लाभ भारतीयों को मिला वह अवर्णनीय हैं। जनमानस युगों से महाभारत, भागवद, गीता तथा अन्य पुराणों में विकसित उपेदश-कमल-समूह की सुगंध् से आवृत्त होकर ब्रह्मानंद की अनुभूति अर्जित करता आ रहा है। अठारह पुराणों में व्यास जी के ये दो वचन सर्वत्रा गुंजरित है-- प्रथम यह कि परोपकार के बराबर कोई पुण्य नहीं और दूसरा यह कि दूसरों को पीड़ा देने के बराबर कोई पाप नहीं---अष्टादशपुराणेषु व्यासस्य वचनद्वय। परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम्।।इस उदार,उदात्त, सर्वोच्च भावना के कारण ही भारतीय संस्कृति की मौलिक महत्ता है। भारतीय संस्कृति केवल भारतीयों को ही नहीं, वरन् सम्पूर्ण विश्व के मानसमात्रा को सुखी और शांत बनाने में सक्षम है। भारत के सभी महापुरुष सर्वजन सुखाय की सद्भावना की घोषणा कर गए हैं कि समस्त विश्व का कल्याण हो और आत्म कल्याण के लिए मानव जाति सचेष्ट हो। क्योंकि पशुता आत्म-हित में रति रखती है, परंतु सर्व हित में रति मानवता का लक्षण है। भारतीय संस्कृति इसी सर्वभूत हिताकांक्षा की जननी है। भारीतय संस्कृति विशेषता तो परोपकार से है, त्याग से, संयम से, सद्गुणों को धरण करने से है। श्रुति का एक वाक्य हैः- (माता भूमिः पुत्रो) भूमि मेरी माता है और मैं उसका पुत्रा हूं। इसका विराट भावार्थ देखकर मन श्र(ा से भर उठता है उन ट्टषियांे की प्रज्ञा के प्रति जिन्होंने एक आकांक्षा मन में रखी कि सारी ध्रती का कल्याण हो, क्योंकि हम सब उनके बेटे हैं। आज संस्कृति पुरूष आशुतोष महाराज ने विश्व में बंधुत्व और शांति की स्थापना हेतु दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान की स्थापना की। आप के द्वारा प्रदत्त ब्रह्मज्ञान के प्रकाश तथा प्रेम व वात्सल्य की सरिता ने असंख्य मुरझाए हृदयों को नवजीवन दिया है। गुरु महाराज जी के सानिध्य को पाने वाले प्रत्येक जीव का जीवन पुष्प पल्लवित हो, अपनी सम्पूर्ण सुषमा को प्राप्त करता है। ऐसे सुगंध्ति पुष्पों का आध्क्यि ही समाज में सहिष्णुता, सौहार्द, प्रेम सदृश दैवी भावनाओं का संचार कर रहा है। आप की युगांतकारी व संस्कृति प्रेम से ओतप्रोत शिक्षाओं ने मानवता को विभाजित करने वाली सीमाओं को नष्ट कर डाला है। आज ब्रह्मज्ञान की मशाल पूरे विश्व में देदीप्यान हो रही है। कलियुग केेेे आगमन कारण राजा परीक्षित को शाप मिलता है।
Copyright @ 2019.