(15/05/2015) 
श्रेष्ठ व्यकितत्वों की प्राप्ति ब्रह्मज्ञान द्वारा ही संभव - वैैष्णवी भारती
दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान के द्वारा श्रीमद्भागवत कथा नवाह ज्ञानयज्ञ के षष्ठम् दिवस की सभा में आशुतोष महाराज की शिष्या साध्वी वैष्णवी भारती ने प्रभु की बाल लीलाओं को प्रस्तुत किया।

उन्होंने नटखट बाल गोपाल श्रीकृष्ण जी की मिट्टी खाने वाली लीला का वर्णन किया। साध्वी ने पूतना लीला के माध्यम से समझाया कि जिस प्रकार  पूतना बाहर और भीतर से भिन्न-भिन्न स्वभाव की थी। प्रभु को यह रूप प्रिय न लगा। हम भी समाज में तरह-तरह के मुखौटे लगा कर विचरण करते हैं। बाहर भीतर से अलग हैं। बाहर से सुसज्जित परंतु अंदर से विकारों से जूझता व्यक्तित्व है। चरित्रा के मायने भूल चुका आधुनिकरण समाज का मानव। चरित्र एक ऐसा शब्द है जो मानव के संपूर्ण व्यक्तित्व का उद्बोध्न करता है। किसी भी राष्ट्र या समाज की उन्नति का आधार वहां के भौतिक साध्न, खनिज संपदा या उर्वर भूमि नहीं होते, वरन किसी देश का उत्कर्ष उसके चरित्रावान नागरिकों पर निर्भर करता है। चरित्रा व्यक्ति के नैतिक मूल्यों, विश्वासों और शख्सियत से मिलकर बनता है। यह हमारे व्यवहार और कार्यो में झलकता है। इसे दुनिया की बेशुमार दौलत से भी ज्यादा संभालकर रखने की जरूरत होती है। किसी चित्रा में जिस प्रकार हम उसके रंगों के मेल को नहीं अपितु उसकी कला को महत्त्व देते हैं, किसी कविता में जैसे शब्द योजना को नहीं अपितु उसके भाव को महत्त्व देते हैं, पुष्प में उसके आकार और बाह्य सौंदर्य को नहीं उसके प्राकृति रूप को मान देते हैं उसी प्रकार मानव के संबंध् में उसके शारीरिक रूप को नहीं अपितु उसके गुण, चरित्रा को विशेष स्थान दिया जाता है। अष्टावक्र के विषय में कौन नहीं जानता? शारीरिक तौर पर उनके आठ अंग टेढ़े थे। परंतु राजा जनक को जीवन की वास्तविकता का रहस्य उन्हीं ने समझाया। सुकारात जो कि निहायत ही कुरूप थे परंतु लोगों को उन्होंने जीवन जीने की कला सिखायी। चाणक्य जिनके चेहरे पर चेचक के दाग थे पर उनके महान चरित्रा ने सदैव से भारतवासियों को आकषत किया। जैसे मनुष्य दर्पण के सामने खड़े होकर स्वयं को सजाता संवारता है, वैसे ही गुणों को सम्मुख रख कर हमें अपने चरित्रा को परिष्कृत करना चाहिए। चरित्रा को ब्रह्मज्ञान के सांचे में आकार प्रदान करें। ताकि समाज को श्रेष्ठ व्यकितत्वों की प्राप्ति हो सके।
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