(12/02/2016) 
राजनैतिक मजबूरी जनता पर भारी
पिछले कुछ दशकों में राजनैतिक मजबूरी का खामियाजा जनता को भरपूर रूप से चुकाना पड़ा है। 2ज़ी ले या कोलगेट या फिर कॉमनवेल्थ या फिर नेताओं के निजी फायदों के चलते नौकरशाहों, प्रॉपर्टी के दलालो, बिजिनेस टायकून्स को फायदा पहुँचाने वाले मामले राजस्थान, गुजरात, हरियाणा, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश और दिल्ली में सामने रहे हैं।

इन सभी मामलो में भाजपा, कांग्रेस, आम आदमी पार्टी, समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और अन्य दलो की सरकार रही है। जो पार्टी विपक्ष में रही उसने खूब हल्ला मचाया और सत्तासीन पार्टी ने जैसे कान मूँद कर मुंह पर फेविकोल का मजबूत लेप लगा लिया हो। ऐसा लेप जिसे अच्छे से अच्छा न खोल पाये। फिर विपक्ष में बैठी पार्टी चुनाव जीत कर सत्ता में आती है तो वही हाल देखने को मिलता है। ऐसा प्रतीत होता है जैसे बारी बारी लूटने खसोटने की सभी पार्टियों ने सेटिंग कर रखी हो। भाई इस बार हम खा ले अगली बार तुम खाना। बस हो हल्ला मचाना। मूल रूप से ये कहना की हर पार्टी अब निरकुंशता की और बढ़ चली है। सत्तासीन होने से पहले वायदों की भरमार, तरह  तरह के विज्ञापन और एक दूसरे पर लांछन लगाने की कवायद अब आम हो चली। ऐसे में एक शक्स की एंट्री हुई।

अन्ना हज़ारे। अन्ना वही चरित्र हैं जिनका नाम साल 2012 में बच्चे बूढ़े और जवान सबकी जुबान पर सुना गया। हर तीसरे शक्स के सर पर अन्ना टोपी इस बात का द्योतक थी की इस इंसान को सदी के महानायक रूप में उभरते हुए देखा जाने लगा था। गाँव देहात में तो पढ़े लिखे लोग अन्ना हजारे को आने वाले राष्ट्रपति का उम्मीदवार तक कहने लगे थे। अन्ना हजारे के अगल बगल एक शक्स आम तौर पर दिखता था। वो था आज के दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल। अन्ना के रामराज के सपने को जहाँ लोग हकीकत में जीने का सपना देखने लगे थे वहीं अन्ना रुपी राम के लक्ष्मण के रूप में अरविन्द का नाम लिया जाने लगा था। दोनों ही राजनीति रुपी मेघनाथ से कोसो दूर रहने की बातें करते। लेकिन अन्ना के इस लक्ष्मण को मेघनाथ रूपी राजनीति ने मूर्छित कर दिया। धीरे-धीरे खबरे आई की अब अरविन्द राजनीति में आने वाले हैं। कभी इन खबरों का खंडन होता कभी फिर फिर से इन अफवाहों का बाज़ार गर्म होता। आखिरकार अन्ना की सलाह के विपरीत जाकर अरविन्द केजरीवाल झाड़ू लेकर राजनीति में उतर आये। तरकश को नाम दिया आम आदमी पार्टी। जिसमे आंदोलन के साथी कुमार विश्वास, शान्ति भूषणप्रशांत भूषण, मनीष सिसोदिया आदि धनुष बाण बने। शुरुवाती दिनों में आम आदमी पार्टी अन्य दलों से अलग तरह की राजनीती के लिए चर्चा में बनी रही। लेकिन धीरे धीरे खबरे आने लगी की राजनीति काली ही रहने वाली हैं। सफेद केवल पहनावा हो सकता है राजनीति नहीं। भ्रष्टाचार, विकाशरोजगार और अनुबंधित कर्मियों के शोषण को मुद्दा बना कर गद्दी पर बैठे केजरीवाल अब निरकुंश शाषण की और बढ़ चले। मनमाने फैसले, अड़ियल रुख, तू-तू, मैं-मैं की लड़ाई दिल्ली की सड़कों पर आम हो गई है। कभी उपराज्यपाल, प्रधानमंत्री और सवैंधानिक पदों पर बैठे लोगो पर अमर्यादित टिप्पणियाँ, बयान और कभी गणतंत्र दिवस पर वीआईपी इलाके में अड़ियल रुख अपनाते हुए चिरपरिचित धरने प्रदर्शन करते आम लोगो ने भी देखा।

बहरहाल कांग्रेस जैसी करप्ट पार्टी के साथ कभी समझौता नहीं करने की कसम खाने के बावजूद कांग्रेस के आठ  विधायको के बल पर मुख़्यमंत्री पद पर काबिज होने वाले अरविन्द ने पद से इस्तीफा दिया और दिल्ली की जनता को साल से भी ज्यादा समय के लिए बैकफुट पर धकेल दिया। आलम ये रहा की कई योजनाएं जो शीला सरकार में आचार सहिंता लगने के कारण अवरोधित हुई और लगभग दो साल बाद तक अटकी रही। बुढ़ापा पेंशन पाने वाले बुजुर्गों का सबसे ज्यादा बुरा हाल रहा। ऐसे बुजुर्ग जो केवल नेताओं के लिए वोट मात्र थे। साल भर से ज्यादा भाजपा की केंद्र सरकार, कांग्रेस और आप के बीच आरोप प्रत्यारोप का दौर चलता रहा। इस बीच अपना जनाधार लगभग खो चुके अरविन्द ने चिरपरिचित अंदाज में विज्ञापनों और धरनो से लोगो के बीच वापसी की। आप की गाडी जहाँ 67 विधायको के साथ सबके आगे रही वहीँ कांग्रेस को जनता ने रिपेयर करने के लिए यार्ड का रास्ता दिखा दिया और भाजपा बमुश्किल प्लेटफॉम नंबर 3 तक ही पहुँच सकी।

अब अरविन्द केजरीवाल का जज्बा और आत्मविश्वास सातवे आसमान पर था हो भी क्यों ना? अरविन्द फ़िल्मी दुनिया के नायक अनिल कपूर को पछाड़ कर असल जिंदगी के नायक के रूप में अंतर्राष्ट्रीय रूप में जो छा गए थे। लेकिन धीरे धीरे अरविन्द केजरीवाल और आम आदमी पार्टी भी अन्य दलों की तरह ही अपने वायदों की वास्तिवकता से परे दिखने लगी। अब सारे वायदों को बिखरते देख आम लोग दुखड़ा रोते दिखने लगे। 

विरोध की राजनीति करते करते आम आदमी पार्टी, विरोध आदमी पार्टी जैसा आचरण करने लगी। आलम यह रहा की दिल्ली को जहाँ विश्व मानचित्र में गिना जाना चाहिए कूड़े के ढेर में बदल गई। बिना लालच के काम करने का वायदा करने वाले आम आदमी पार्टी के नेता अब लाखों के वेतन की मांग करने लगे। बिना गाड़ी के अब विधायको की शान में चार चाँद नहीं लग पा रहे थे। मसलन आनन फ़ानन में केजरीवाल ने विधायको के वेतन बढाने के लिए कमीशन का गठन कर दिया। उम्मीद के मुताबिक़ चंद दिनों में ही कमीशन ने रिपोर्ट सौप दी और आम आदमी से विधायक बने नेता लखपति बन गए। यहाँ ये गौर करने वाली बात है की एक कमीशन का गठन केजरीवाल सरकार ने उन कर्मचारियों के सबंध में भी किया था जो पिछले एक दशक से भी ज्यादा समय से दिल्ली सरकार में सेवा दे रहे हैं। आज तक ना रिपोर्ट पेश हुई न कोई जानकारी साँझा की है। 

इन कर्मचारियों के वेतन की अगर बात की जाए तो कभी मात्र 59 रूपये की बढ़ोतरी हुई और कभी 153 रूपये का मानदेय बढ़ाया गया। अब आप देखिये क्या यही वो अरविन्द केजरीवाल हैं जो इन वायदों के साथ मीडिया में उक्त कर्मचारियों के भविष्य के साथ खिलवाड़ को मुद्दा बनाते थे। 

अब अगर कांग्रेस की बात की जाए तो राहुल गांधी सरीखे सभी नेता हर उस विषय को मुद्दा बनाना चाहते हैं जिससे विपक्षी दल की नाक में दम किया जा सके। चाहे वो भाजपा हो या आम आदमी पार्टी। वही हाल भाजपा का भी रहा है। इस सब में जनता पिस रही है। करे भी तो क्या करे? 

राजनैतिक मज़बूरी के चलते कभी नितीश लालू से मिल जाते हैं। तो कभी किरण बेदी को भाजपा में ले आते हैं। जोड़ तोड़ कर सरकार बनाकर बिहार में जंगलराज की वापसी का हल्ला मचा रही बीजेपी अब पंजाब, उत्तर प्रदेश और अन्य राज्यों में बैकफुट पर नजर आ रही हैं। क्योकि उनके शाषित राज्यों में भी कमोबेश वही हालत हैं। वही पंजाब में चुनावी बिगुल बजने के साथ ही दिल्ली जैसा माहौल आम आदमी पार्टी ने पंजाब में बना दिया हैं। वही वायदे वही भरोसे अब पंजाब की गली- गली में गूँज रहे हैं। शीला दीक्षित को जेल भेजने की बात करने वाले केजरीवाल अब बादल को जेल भेजने की बात कर रहे हैं। 

मूल रूप से कहना कि राजनैतिक मजबूरियों के कारण जनता का ये शोषण जारी रहेगा। लेकिन सवाल ये की आखिर कब तक

सागर शर्मा

समाचार वार्ता नई दिल्ली 

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