आप सभी से एक सवाल । क्या बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ जैसे ज्वलंत और गंभीर मुद्दे पर समाज में एक सोच पैदा हो रही है ? आप शायद हाँ में जवाब दें । शायद मैं भी हाँ में ही आपका समर्थन करूँ । लेकिन कभी आपने सोचा है कि यहां वहां बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ विषय पर हो रहे सामाजिक आयोजन कितने सही होते हैं । क्या आपने कभी ये जानने की कोशिश की है कि इन आयोजनो का आधार और उदेशय क्या है ? आइये आज इस विषय पर थोड़ा विचार कर लें । हम प्राय: देखते हैं गली मोहल्लों में बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ के नारे आम तौर पर माइक में गूंजते रहते हैं । जंतर मंतर से लेकर छोटे छोटे कस्बो में इस विषय पर खूब हो हल्ला भी हो रहा है। सरकारी और गैरसरकारी आयोजन आजकल आमतौर पर हम यहां वहां देख ही लेते हैं ! ब्रांड अम्बेसडर से लेकर स्पॉन्सरशिप की बात इस विषय हर रोज़ संज्ञान मॆ आती रहती है ! लेकिन क्या हकीकत में टीआरपी या पब्लिसिटी के अलावा वाकई बेटी के मार्मिक दर्द के धरातल पर कुछ मरहम लग भी रहा है ? क्या बेटी के मार्मिक संदर्भ कॊई स्थान दिया जा रहा है ? क्या केवल भ्रूण हत्या कॊ मुद्दा बनाकर नाटकों का मंचन कराना ,स्टेज शो का आयोजन करना या फिर वाद-विवाद प्रतियोगिता का आयोजन करना बेटी कॊ धरातल पर किसी प्रकार की मदद दे पाता है ? अगर हाँ तो कैसे और अगर नहीँ तो ये आयोजन किसी निजी फायदे के लिए तो नहीँ ? ये सवाल मन मस्तिस्क में पिछले कुछ दिनों की घटनाओं से उभर रहे हैं जहां यह देखने कॊ मिला है कि कुछ तथाकथित समाजसेवी बेटी बचाओ बेटी पढाओ विषय पर केवल और केवल स्टेज शो और नाटक करने मॆ व्यस्त हैं ! ऐसी स्टेज शो और नाटक जिनका मंचन ऐसे ऑडिटोरियम मॆ किया जाता है जिनकी क्षमता 200-300 रही होगी ! ऐसे मॆ आप सोचिये कि क्या स्टेज शो और नाटक का मंचन करके बेटियाँ बचेंगी कैसे और पढेंगी कैसे जब तक कि उनके लिए ऐसे अवसर ना खोले जायें जिनके द्वारा भ्रूण हत्या पर अंकुश लग सके और जो बेटियाँ दुनियाँ मॆ आ गई हैं उनके लिए अवसर पैदा किए जा सकें ! हाल ही मॆ "बेटी बचाओ बेटी पढाओ स्लोगन की आड़ मॆ फेशन शो ,ब्यूटी कॉन्टेस्ट और खुद की प्रतिभा का प्रदर्शन करना मुझे स्वघोषित समाजसेवियों की टीआरपी पाने की ललक के सिवा कुछ और नही लगता ! मैं खुद स्वयं को हताश और असहाय महसूस कर रहा हूँ तो मैं समाज को क्या दे पाउँगा । लेकिन जो लोग समाज सेवक होने का दम आज शोर मचा मचा कर भर रहे हैं उनके मानसिक दिवालियेपन को मैं समझ नहीं पाया । खैर ऐसे लोगो से क्या शिकवे क्या शिकायत करें जो खुद बेहतर इलाज के इन्तजार में हैं । लेकिन सावधानी उन लोगो को बरतनी हैं जो ऐसे ढकोसलों की चपेट में आकर अपनी छवि को धूमिल करते हैं । आज़ जो लोग अच्छे मुकाम पर हैं ऐसे लोगों का फ़ायदा ये सभी स्वघोषित समाजसेवी संगठन उठाते हैं और बेटी बचाओ बेटी पढाओ मुददे पर निज फायदे उठाते हैं ! आमतौर पर मैं यह देख रहा हूँ कि कुछ सामाजिक संगठन सोसल मीडिया पर खूब समाज सेवा कर रहे हैं लेकिन इनमें से एक ने भी कभी किसी दूरदराज के किसी गाँव मॆ जाकर बेटियों के विषय पर कुछ पहल की हो मुझे नही लगता ! कुछ लोगों कॊ तो मैंने सुझाव भी दिया कि धरातल पर इस विषय कुछ कीजिये ! लेकिन अभी तक ऐसा कुछ हुआ नही ! बेहरहाल मेरे कुछ शब्द जिनको मैं आम तौर पर बेटी को समर्पित करता रहता हूँ । इन शब्दों के जरिये मैं सभी से ये अपील करना चाहूंगा कि बेटी के मार्मिक धरातल पर कुछ करें न कि वाहवाही के लिए इस विषय का प्रयोग करें ! बेटी भार नहीं आभार हैं । बेटी कुदरत की करूण पुकार हैं । बेटी है तो कल है ,बेटी है तो हर पल है ॥ आओ बेटी के सम्मान में दुनिया में अलख जगाएं । बेटी बचाएं ,बेटी पढ़ाएं ॥ इन शब्दों कॊ सार्थक तभी मान सकता हूँ जब कम से कम एक बेटी को मैं ये दे पाऊं । अमूमन ये देखा जाता है जाता है कि छोटे से छोटे स्लोगन के पीछे एक बड़ा सन्देश छुपा होता हैं । इस स्लोगन में भी मैंने बेटी के सार रूप को अभिव्यक्त करने की पूरी पूरी कोशिश की है । लेकिन मानसिक रूप से खुद को तब मैं व्यथित महसूस करता हूँ जब तक ढोल बजाकर सेवा करने वाले लोगो को इन सबका का दुरपयोग करते पाता हूँ । मैं अपील करता हूँ ऐसे सभी दानी दाताओं से जो ऐसे आयोजनो में अपनी कमाई का कुछ हिस्सा बेटियों के सुनहरे भविष्य के लिए दान में देते हैं ! कृपया दान देने से पूर्व उस संगठन की वास्तविकता जांच ले । अन्यथा आपके द्वारा दिया दान आपको पाप का भागीदार भी बना सकता है । ठीक वैसे ही जैसे किसी ऐसे भिखारी कॊ भीख देना जो शाम को दिन भर की भीख से दारु पीकर मौज उड़ाता है । आप सभी दानीदाता साफ़ मन से साफ़ कमाई का जो हिस्सा समाज के उस तबके में लगाना चाहतें है जहाँ उसकी गभीर रूप से जरूरत है । लेकिन आप सोचिये अगर यही हिस्सा गलत गतिविधियो में प्रयोग में लाया जाए तो क्या आप खुद को आत्म सतुष्टि दे पाएंगे ? आज़ ज़रूरत हैं भ्रूण हत्या के अलावा जन्मी बेटियों के लिए कुछ करने की जिसके जरिये वे आगे बढ़ सकें अन्यथा "बेटी बचाओ बेटी पढाओ" विषय तब तक सार्थक नहीँ हो पायेगा क्योंकि बेटियाँ ना तो स्टेज शो से बचेंगी ना पढेंगी ! इनको बचाने और पढाने के लिए जमीनी शुरुआत ज़रूरी है ! आज़ भी आमतौर पर बेटा बेटी मे फर्क हमारे समाज मे हर घर की समस्या है !चाहे प्रेम विवाह हो या करियर या फिर कोई और विषय बेटियों को बेटों से कमतर ही देखा जाता है ! ऐसे मे ज़रूरत है धरातल पर उतरने की और वास्तविकता मॆ कुछ करने की तभी उपरोक्त पंक्तियों के मुताबिक हम बेटी के सम्मान मॆ अलख जगा पायेंगे ! सोचना आपको है । ज़रा सोचिये सागर शर्मा लेखक परिचय : लेखक सागर शर्मा पेशे से पत्रकार हैं और काव्य संग्रह "सागर की लहरें" के रचियता हैं | |