(30/08/2016) 
आत्मज्ञान असंभव को संभव करने की शक्ति देता है - साध्वी वैष्णवी भारती
दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान की ओर से जयपुर में श्रीमद्भागवत कथा ज्ञानयज्ञ के तीसरे दिवस में सर्व श्री आशुतोष महाराज जी की शिष्या साध्वी सुश्री वैष्णवी भारती जी ने प्रहलाद प्रसंग के माध्यम से भक्त और भगवान के संबंध् का मार्मिक चित्रण किया। प्रहलाद के पिता हिरण्यकश्यिपु के द्वारा उसे पहाड़ की चोटी से नीचे फैंका गया, विषपान करवाया, मस्त हाथी के आगे ड़ाला गया।

परंतु भक्त प्रहलाद भक्तिमार्ग से विचलित न हुए। विपदा या मुसीबत भक्त के जीवन को निखारने के लिए आते हैं। जिस प्रकार से सोना आग की भट्टी में तप कर ही कुंदन बनता है। ठीक वैसे ही भक्ति की चमक विपदाओं के आने पर ही देदीप्यमान होती है। दूसरी बात यह कि जो भीतर की शक्ति को नहीं जानता, वह इनसे घबराते हैं। आज समाज में अनेक किताबें हैं जो विपरीत परिस्थितियों में साहस न छोड़ने की प्रेरणा देती हैं। पर उन में लिखे शब्द हमारी बुद्धि में ही स्थान पाते हैं, कर्म में नहीं। क्योंकि जिस आत्मविश्वास की खोज हम कर रहे हैं वह आत्मा को जानने पर ही प्राप्त होगा। कहा भी गया है कि पृथ्वी पर सशक्त हथियार आत्म जागृति है। सद्गुरू की शरण में जाने पर आत्मज्ञान को प्राप्त करने के बाद ही हमारा स्वयं पर और परमात्मा पर विश्वास स्थिर होता है। फिर इस साहस से उपजता है अदम्य साहस जो हमें असंभव को संभव करने की शक्ति देता है। इसलिये जिस भी सफलता को हम प्राप्त करना चाहते हैं,  उसका आधर है आत्मविश्वास, वह केवल आत्मज्ञान से ही संभव है। तदुपरांत होलिका प्रहलाद को क्षति पहुंचाने का प्रयास करती है। अग्नि में बैठे भक्त की प्रभु ने रक्षा की। उसके पश्चात् भक्त की रक्षा करने प्रभु स्तम्भ में से प्रकट होते हैं। नरसिंह अवतार धरण कर उन्होंने अधर्म और अन्याय को समाप्त कर सत्य की पताका को फहराया। परंतु समझने वाली बात यह है कि हिरण्यकश्यिपु ने नियम बनाया कि मैं ही भगवान हूं। यह स्वार्थ की भावना से पूरित था। वे नियम न तो व्यक्ति का भला कर सकते हैं व न ही समाज का। उस सार्वभौमिक नियम को जानकर ही  मानव जीवन का कल्याण है, जिसे ईश्वर कहा गया है। सर्वत्र एक ही चेतना परिव्याप्त है और सभी कुछ एक ही उर्जा से प्रसूत है। उसी शक्ति से ही सारी सृष्टि संचालित हो रही है। यह सृष्टि सुनियोजित, सुव्यिवथित व नियमित ढ़ंग से संचालित हो रही है। इसलिए ये ब्रह्मांड व सृष्टि अपने निर्माण के पीछे एक विवेकशील सत्ता की उद्घोषणा करता है। अवश्य इसका कोई रचयिता व निर्माता है। यह निर्माता सर्वशक्तिमान, अनंत विवेक से संपन्न व सर्वज्ञ है। इन विशेषताओं से युक्त निर्माता को ही शास्त्रों ने ईश्वर या ब्रह्म की संज्ञा दी। यह सारा ब्रह्मांड भी ईश्वर रूपी शक्ति से संचालित है। एक बार सर्व श्री आशुतोष महाराज जी से किसी ने प्रश्न किया - यदि परमात्मा है तो दिखाई क्यों नहीं देता? आप का प्रश्न तो बिल्कुल अताखकक है। ऐसी बहुत सी वस्तुएं होती हैं, जो इन नेत्रों से दिखाई नहीं देतीं। तो क्या उनका भी अस्तित्व नहीं है? उदाहरण- अमीबा, बैक्टीरिया आदि जीवाणु। धरती से लाखों मील की दूरी पर अंतरिक्ष में भ्रमण करते असंख्य ग्रह-उपग्रह! और तो और यदि कोई वस्तु इन आंखों के अत्यंत समीप आ जाती है तो भाव 25 सैंटीमीटर से भी कम दूरी पर, तब भी ये आंखें उसे नहीं देख पातीं। दूसरी बात आप नेत्रों से जो देख रहे हैं, वह यथार्थ है इसका भी क्या प्रमाण है? जब किसी मानव को पीलिया हो जाता है तो उसे सब वस्तुएं पीली दिखाई देने लग जाती कहने का भाव कि हमारे नेत्र अपूर्ण हैं। इनकी दृष्टि भ्रामक है व सीमित है। इसलिए इनके आधार पर हम किसी वस्तु के अस्तित्व को स्वीकार या नकार नहीं सकते। जैसे सूक्ष्म जीवाणुओं को माइक्रोस्कोप द्वारा, ग्रहों-उपग्रहों को टेलीस्कोप द्वारा देखा जाता है, ठीक इसी प्रकार कण-कण में स्थित ईश्वर हमारे भीतर भी स्थित है। परमात्मा को दिव्यदृष्टि,  तृतीय नेत्रा, ज्ञानचक्षु द्वारा देखा जाता है। देखी है हमने परम ज्योति रख पैर पाप के मस्तक पर। अब जान गए हर जर्रे में उसका ही तेज छलकता है। जगमग करती हर वस्तु में वो बन के नूर झलकता है।।

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