दीपावली दीयों और प्रकाश का त्यौहार है लेकिन दुख की बात यह है कि हम इसका समापन अपने पर्यावरण में कचरा और प्रदूषण फैलाने में कर रहे हैं। इस दिन दीये जलाकर, रंगोली बनाकर और अपने मित्रों, रिश्तेदारों तथा परिचितों में मिठाईयां, उपहार बांटकर हम अपनी खुशी का इजहार करते हैं और इस पूरे पर्व के दौरान तीन से पांच दिन तक पटाखे एवं आतिशबाजियां भी की जाती हैं। दीपावली और उसके बाद वातावरण में खतरनाक रसायनों की मात्रा स्वीकृत मानकों से कही गुना बढ़ जाती है और यह पटाखों एवं आतिशबाजियों के दौरान छोड़े गए रसायनों जैसे सेलुलोज नाइट्रेट, चारकोल, सल्फर एवं पोटेशियम नाइट्रेट की वजह से होता है। दीपावली की रात फोड़े गए पटाखों से हवा में मौजूद सूक्ष्म कण, जो सांस के जरिए भीतर जाते हैं जैसे ''रेस्पीरेबल सस्पेंडिड पार्टिकुलेट मैटर'' आरएसपीएम, नाइट्रोजन ऑक्साइड, सल्फर डाईआक्साइड न केवल दमा के मरीजों बल्कि स्वस्थ व्यक्तियों को भी बीमार कर देते हैं और यही कारण है कि दीपावली के बाद सांस लेने में दिक्कतें, खांसी-जुकाम और अन्य प्रकार की श्वसन संबंधी बीमारियों में इजाफा होता है। आतिशबाजियों के कारण वातावरण में घुले धुंए और नमी के कण आपस में मिलकर एक घने कोहरे की चादर बना देते हैं जिससे दृश्यता में कमी आती है। लम्बे समय तक वातावरण में मौजूद प्रदूषकों एवं प्रदूषण की वजह से फेंफडों का कैंसर, दिल की बीमारियां, लम्बे समय से चली आ रहीं हृदय/सांस संबंधी बीमारियां ''सीओपीडी'' एवं वयस्कों में एलर्जी समस्या हो सकती हैं। इन प्रदूषको की वजह से छोटे-छोटे बच्चों को सांस की बीमारियां घेर लेती हैं, जो कई बार गंभीर रूप धारण कर सकती हैं। हवा में तैरते सूक्ष्म कणों की वजह से दमा, ब्रोंक्राईटिस और दूसरी सांस संबंधी बीमारियां हो सकती हैं। सल्फर डाईऑक्साइड से फेंफडों को नुकसान हो सकता है। इसकी वजह से फेंफडों की बीमारियां और सांस लेने में दिक्कतें बढ़ जाती हैं। नाइट्रोजन ऑक्साइड से त्वचा की बीमारियां, आंखों में जलन और बच्चों में सांस लेने संबंधी बीमारियां हो सकती हैं। पटाखों में इस्तेमाल किये जाने वाले खतरनाक रसायन जैसे मैग्निशियम, कैडमियम, नाइट्रेट, सोडियम और दूसरे रसायनों के गंभीर प्रभाव हो सकते हैं। वातावरण में भारी धातुएं, काफी लम्बे समय तक रह सकती है और ऑक्सीकरण की प्रक्रिया के जरिए ये सब्जियों में प्रवेश कर खाद्य श्रृंखला को प्रभावित करती हैं। दीपावली के दौरान छोड़े गए पटाखों से वातावरण में न केवल खतरनाक रसायन घुल जाते हैं बल्कि ध्वनि प्रदूषण भी हमारे सुनने की क्षमता पर प्रतिकूल असर डालता है। लोगों के कान 85 डेसिबल तक की ध्वनि सहन कर सकते हैं, लेकिन कई बार पटाखों से हुआ ध्वनि प्रदूषण 140 डेसिबल के स्तर को भी पार कर जाता है, जो किसी भी स्वस्थ व्यक्ति को बहरा बना देने में सक्षम है। ज्यादा आवाज करने वाले पटाखों से दिल के मरीजों, बुजुर्गों और बच्चों को बहुत दिक्कतें होती हैं। ध्वनि प्रदूषण से सुनने की क्षमता समाप्त हो सकती है और इसकी वजह से उच्च रक्तचाप, दिल का दौरा और निद्रा संबंधी बीमारियां जन्म लेती हैं। इसे देखते हुए अस्पतालों, वृद्धाश्रम के बाहर तथा दिल के मरीजों के आस-पास तेज आवाज वाले पटाखे नहीं छोड़े जाने चाहिए। केन्द्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय ने 5 अक्टूबर, 1999 को इस संबंध में एक अधिसूचना जारी की थी और उच्चतम न्यायालय ने भी लाउडस्पीकरों, पटाखों और अन्य उपकरणों के जरिए होने वाले ध्वनि प्रदूषण पर रोक लगाने के लिए निर्देश जारी किये थे। इन दिशा-निर्देशों में 145 डेसिबल से ज्यादा आवाज करने वाले पटाखों पर प्रतिबंध है। दीपावली के अगले दिन निकलने वाला कचरा अभूतपूर्व होता है। दीपावली के दौरान प्रत्येक महानगर में तकरीबन 4000- 8000 टन अतिरिक्त कचरा निकलता है और यह कचरा हमारे वातावरण के लिए बेहद हानिकारक होता है, क्योंकि इसमें फॉस्फोरस, सल्फर एवम पौटेशियम क्लोरेट और कई टन जला हुआ कागज शामिल होता है। हर साल पटाखों से लगने वाली आग की वजह से कई लोग घायल हो जाते हैं। इनमें से अधिकांश 8-16 आयुवर्ग के बच्चे होते हैं। |