राष्ट्रीय (03/03/2016) 
महाशिवरात्रि में करें, शिव-तत्त्व की उपासना- आशुतोष महाराज
ब्रह्मज्ञान की ध्यान-प्रक्रिया ही सच्ची उपासना है हाथ में जल-पात्रा, बेल पत्रा इत्यादि लिए 'रावत' जी के कदम मंदिर की ओर बढ़े जा रहे थे। आज पफाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी के उपलक्ष्य पर उन्होंने महाशिवरात्रि का व्रत जो रखा था। सो शिवलिंग का अभिषेक करने हेतु ही वे घर से निकले थे। पर मंदिर पहुँचने पर उनको श्रद्धालुओं की लंबी कतार देखने को मिली। उनकी बारी आते-आते लगभग डेढ़ घंटा बीत गया। शिवलिंग के निकट पहुँचकर उन्होंने भी बाकी सब की तरह उस पर बेल पत्रा रखे और जल से अभिषेक किया। पर मन में प्रश्न कौंध् उठे, आखिर यह सब क्यों? यह बेल-पत्रा, जल, दूध् इत्यादि से अभिषेक... ऐसा क्यों? खैर, सवालों को किनारे करके वे सरपट घर की ओर मुड़ गए। रास्ते में उन्होंने दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान द्वारा आयोजित शिव-कथा का एक बैनर देखा। कथा पास ही के एक परिसर में चल रही थी। सो, उन्होंने सोचा कि क्यों न कथा का रसपान किया जाए! कथा-स्थल पर पहुँचकर वे पंडाल में जा बैठे। वहाँ महाशिवरात्रि की व्रत-कथा का प्रसंग चल रहा था। मंच पर अध्यासीन कथा-वाचक ने प्रसंग सुनाना आरम्भ किया....एक पौराणिक कथा के अनुसार... हज़ारों वर्ष पूर्व ईक्ष्वाकु वंश के एक राजा हुए। उनका नाम था- चित्राभानु। महाशिवरात्रि के दिन उनके दरबार में ब्रह्मर्षि अष्टावक्र जी का आगमन हुआ। राजा और रानी को शिवरात्रि का व्रत रखता देख उन्होंने पूछ लिया- 'राजन्! इस व्रत का उद्देश्य क्या है?'
'ट्टषिवर, दैवी कृपा से मुझे अपना पिछला जन्म याद आ गया है। सो उसमें निहित दैवी प्रेरणा के कारण मैंने और मेरी भार्या ने यह व्रत रखा है।'- 
गुरुदेव आशुतोष महाराज अक्सर कहते हैं- 'हमारे आर्ष-ग्रंथों में वर्णित प्रसंग किसी मानुष की कोरी-कल्पनाएँ न होकर, ब्रह्मज्ञानी ट्टषियों के अंतःकरण से उक्त साक्षात् ब्रह्म-वाक्य हैं। इनमें निहित गूढ़ भाव को बड़े ही अलंकारिक रूप से प्रस्तुत किया गया है। अतः इन प्रसंगों के मर्म को समझने के लिए आत्म-चिन्तन की गहराइयों में गोता लगाने की आवश्यकता है।'
ठीक ऐसे ही, महाशिवरात्रि की इस व्रत कथा का मर्म गूढ़ के साथ-साथ प्रेरणादायी भी है। भक्तगणों आइए, इस कथा में निहित सार को पंक्ति-दर-पंक्ति समझने का प्रयास करते हैं।
ट्टग्वेद के श्री सूक्तम; में लिखा है- आदित्यवर्णे तपसो{ध्जिातो वनस्पतिस्तव वृक्षो{थ बिल्वः। तस्य पफलानि तपसानुदन्तु मायान्तरायाश्च बाहया अलक्ष्मीः।।
सरल शब्दों में कहें तो, बिल्व वृक्ष ताप का परिचायक है। इस सूक्ति में बिल्व वृक्ष से आर्त प्रार्थना की गई है कि वह अपने तपो-पफल से आध्यात्मिक दरिद्रता को मिटाएऋ उपासक को 'श्री' ;आत्मिक और व्यावहारिक समृद्धि की प्राप्ति कराए। जैसे कि मंदिरों में कलश से बूँद-बूँद करके शिवलिंग पर जल टपकता हैऋ ठीक इसी तरह कबीर जी कहते हैं-
'गगन मंडल अमृत का कुआँ, जहाँ ब्रह्म का वासा'- हमारे ब्रह्मरंध या सहड्डार चक्र में अमृत का एक सूक्ष्म व शाश्वत ड्डोत मौजूद है। जब एक साध्क सद्गुरु द्वारा दिए गए ब्रह्मज्ञान की ध्यान प(ति को अपनाकर ध्यान करता है, तब उसके ब्रह्मरंध् से भी बूँद-बूँद अमृत रस झरता है। ध्यान की गहराई में पहुँचने पर वह इस अमृत का पान कर पाता है- 
ब्रह्मानंद जी ने भी जब अपने गुरुदेव की अनुकंपा से ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति की, तो वे अपने भीतर ही इस अमृत को झरता हुआ अनुभव कर पाए- सगुरा होई सो भर-भर पीवै, निगुरा मरत प्यासा।
अचरज देखा भारी रे साधे, अचरज देखा भारी रे।
गगन बीच अमृत का कुआँ, सदा झरे सुखकारी रे।।
अतः व्याध् द्वारा शिवलिंग पर जल को बूँद-बूँद गिराना, ब्रह्मज्ञान की अमृत पान की 
प्रक्रिया को ही दर्शाता है।
उपवास से उपासना! यह मात्रा संयोग नहीं था कि पूरी रात्रि सुस्वर क्षुध से बेहाल था। इस अलंकारिक भाषा के पीछे झाँकने से ज्ञात होता है कि यह स्थिति 'उपवास' की प्रतीक है। 
इसमें 'उप' का अर्थ है, 'निकट' और 'वास' का अर्थ है- 'रहना'। किसके निकट?
ईश्वर के! अतः उपवास का अर्थ हुआ- 'ईश्वर के निकट वास करना। यही तो ध्यान की शाश्वत प(ति है, जो हमें ईश्वर के प्रकाश स्वरूप का साक्षात् दर्शन कराती है और उस पर एकाग्र होने की युक्ति है। वास्तव में, ब्रह्मज्ञान की ध्यान-प्रक्रिया ही सच्चा उपवास है, प्रभु की सच्ची उपासना है। 'उपासना' शब्द का अर्थ भी ईश्वर के नज़दीक बैठना है।
भगवद् प्रेमियों, यही था शिवरात्रि-व्रत कथा का गूढ़ मर्म। इसी के साथ दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान आप सभी भक्तजनों को महाशिवरात्रि के उपलक्ष्य पर हार्दिक बधइयाँ देता है। आशा करते हैं कि आप भी शिव-तत्त्व की शाश्वत उपासना करने के इच्छुक हुए होंगे और ब्रह्मज्ञान प्राप्त करने की ओर अग्रसर होंगे। ऊँ नमः शिवाय।
कथा-प्रसंग समाप्त होने पर रावत के मन के प्रश्न भी आज समाप्त हो गए। अब वे संतुष्ट हैं। सिर्फ इसलिए नहीं कि उनको अपने मन में कौंधे प्रश्नों के उत्तर मिल गए, बल्कि इसलिए कि उनको वह शाश्वत रहस्य पता चल गया जिसके द्वारा भगवान शिव की सच्ची उपासना की जाती हैऋ इसके लिए उन्होंने भी ब्रह्मज्ञान की ओर अपने कदम बढ़ा दिए।
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