मनोरंजन (14/12/2023)
मैं बैठे-बैठे सोच रहा क्यों ?
मैं बैठे-बैठे सोच रहा क्यों बीता पल न आता है। जब छोटी-छोटी खुशियों में भी मजा बड़ा सा आता था। जब एक दूजे से लड़कर भी हम साथ-साथ हो जाते थे जब बातों ही बातों में यूं ही घंटो निकल जाते थे जब मां आवाजें देती थी हम झट से छुप जाते थे। जब मां के हाथों की रोटी का स्वाद कहीं ना आता था। जब खेल-खेल में जीत हार के मतलब समझ में आते थे। जब जेब में एक रुपया होता हम राजा बन जाते थे। जब छोटे-छोटे कमरों में पूरा कुनवा सो जाता था। जब थोड़े से खाने को भी हम बांट बांट कर खाते थे। जब फिल्में देख शहीदों की यह खून खोल सा जाता था। वो पल शायद ना आएंगे अब हर कोई खुद में खोया। कैसे कर लूं अपने बस में वो अपने स्वांग बनाता है। मैं बैठे-बैठे सोच रहा क्यों बीता पल न आता है। विक्रम बिष्ट की लेखनी से |
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