राष्ट्रीय (25/04/2010) 
जीवन में सफलता के लिए सत्संकल्प के सूत्रों को आत्मसात करें...

युग निर्माण सत्संकल्प युगऋषि की एक अद्भुत-अनुपम देन है । इसमें मनुष्यता, सामाजिकता, राष्ट्रीयता, विश्वात्मता आदि से संबंधित आदर्शों का सुंदर समन्वय-संतुलन बन पड़ा है । गायत्री महामंत्र जैसी अनोखी विशेषताओं का समावेश इसमें भी अनुभव किया जा सकता है । परमात्म सत्ता के स्वरूप, उसके साथ सम्पर्क के अनुशासन सूत्रों आदि के संबंध में सभी तत्त्वदर्शियों ने बहुत कुछ कहा है, किन्तु गायत्री मंत्र में उनका जितना जीवंत समावेश जितने संक्षेप में हो सका है, वैसा कहीं अन्यत्र नहीं मिलता । इसी प्रकार वर्तमान समय की भीषण विभीषिकाओं, विसंगतियों का निवारण करते हुए मनुष्य को उज्ज्वल भविष्य के पथ पर आगे बढ़ाने में समर्थ जीवंत, व्यावहारिक सूत्रों का जितना सुंदर समावेश इन अट्ठारह सूत्रों में हो सका है, वैसा अन्यत्र दुर्लभ है । इन्हें श्रीमद् भगवद् गीता के १८ अध्यायों की तरह सारगर्भित कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी । युगऋषि की तीसरी हिमालय यात्रा सन् १९६०-६१ में हुई थी । उनकी उसी यात्रा के संस्मरण श्सुनसान के सहचर नामक पुस्तक में हैं । उक्त यात्रा से लौटने के बाद उन्होंने स्पष्ट घोषणा कर दी थी कि वे दस वर्ष बाद (जून १९७१ में) अनिश्चित काल के लिए हिमालय जायेंगे, मथुरा छोड़ देंगे । तभी उन्होंने युग निर्माण अभियान की स्पष्ट रूपरेखा के साथ युग निर्माण सत्संकल्प के सूत्रों का निर्धारण किया था । इसकी व्याख्या के रूप में अखण्ड ज्योति का एक विशेषांक (सितम्बर ६२) भी निकाला था । सत्संकल्प के उस प्राथमिक रूप में क्रमशः तीन बार उन्होंने संशोधन किये । आज उसका जो स्वरूप प्रचलित है, वह अंतिम संशोधन-संवर्धन (सूक्ष्मीकरण साधना) के बाद का है । जब दैवी प्रेरणा और ऋषियों की अनुभूति के सुसंयोग से दिव्य ज्ञान-सूत्र प्रकट होते हैं, तो वे श्उपनिषदीयश् ज्ञान-सूत्र कहलाते हैं । वे जीवंत ज्ञान के अंग होते हैं । उनके अंदर सन्निहित दिव्य बोध की धाराएँ साधक के जीवन की आवश्यकता के अनुरूप प्रकट होती रहती हैं । जिस प्रकार दूध-दही में उपस्थित मक्खन को प्रकट करने के लिए उसका मंथन किया जाता है, साधक शरीर में स्थित दिव्य ऊर्जा (कुण्डलिनी शक्ति) के जागरण के लिए प्राणों के मंथन की आवश्यकता होती है । लकड़ी में स्थित अग्नि को जाग्रत् करने के लिए अरणि मंथन करना होता हैय इसी प्रकार ज्ञान के दिव्य सूत्रों को जाग्रत् करने के लिए चिंतन, जीवन-मंथन की प्रक्रिया अपनानी पड़ती है । गीता, रामचरित्र मानस, ब्रह्मसूत्र आदि पढ़ते तो बहुत लोग हैं, किन्तु चिंतन, जीवन-मंथन के संयोग के बिना उनकी दिव्य अनुभूतियों के स्रोत खुलते नहीं हैं । युग निर्माण ईश्वरीय योजना के अनुसार सुनिश्चित है । इसके लिए सूक्ष्म तंत्र ऋषियों ने तैयार कर दिया है । उसे स्थूल रूप में चरितार्थ करने के लिए जाग्रत् आत्माओं, प्रज्ञावानों द्वारा दिव्य पुरुषार्थ किया जाना है । युग निर्माण सत्संकल्प के सूत्रों में वह दिव्य पुरुषार्थ जाग्रत् करने की गूढ़ सार्मथ्य (पोटेंशियल एनर्जी) विद्यमान है । चिंतन, जीवन-मंथन द्वारा इन सूत्रों को जीवन का अंग बनाने के प्रयास से वे किसी व्यक्ति के अंदर क्रमशः जाग्रत् हो सकते हैं । उसके अंदर नवसृजन की उल्लेखनीय सार्मथ्य का विकास हो सकता है । इसीलिए सृजन साधना महापुरश्चरण के लिए अनिवार्य तप के रूप में इन्हीं सूत्रों को जीवन में धारण करने और उनका जन-जन में विस्तार करने की मर्यादा निर्धारित की गयी है । जो साधक इन सूत्रों के आधार पर नैष्ठिक जीवन साधना करेंगे, उनके लिए यह ऋषि प्रणीत सूत्र श्कामधेनु एवं कल्पवृक्षश् की तरह अपने दिव्य सार्मथ्य खोलते अनुभव हो सकेंगे । यह सूत्र सार्वभौम है श्युग निर्माण योजनाश् ईश्वरीय योजना है । इस युग में रह रहे हर भावनाशील, विचारशील, प्रतिभावान के लिए इस योजना में उल्लेखनीय भूमिका निभा सकने की पूरी-पूरी संभावना है । उन तमाम संभावनाओं को साकार करने के लिए युगऋषि ने जो सूत्र निर्धारित किये हैं, वे भी सार्वभौम, सबके लिए अपनाने और व्यवहार में लाने योग्य हैं । संसार के किसी भी भू-भाग में रहने वाले, समाज के किसी भी वर्ग, किसी भी धर्म-संप्रदाय के व्यक्ति इन्हें बिना किसी झिझक के अपना सकते हैं । विघ्न संतोषियों, कुतर्कियों की बात छोड़ दें, तो किसी भी विवेकवान के लिए इन सूत्रों में सैद्धांतिक मतभेद दिखाई नहीं देता । आवश्यकता सिर्फ इन्हें सही व्यक्तियों के सामने सही रूप में प्रस्तुत करने भर की है । शांतिकुंज में सत्संकल्प मूल हिंदी के साथ ही अंग्रेजी, उर्दू, नेपाली तथा विभिन्न प्रादेशिक भाषाओं में उपलब्ध है । कई जगह इन्हें आंचलिक भाषाओं में (देवनागरी लिपि) में भी तैयार किया जा चुका है । जन-सामान्य के बीच इन सूत्रों को पहुँचाने का अभियान तो विभिन्न रूपों में चल ही रहा है, विभिन्न वर्गों, मठों, संप्रदायों के मर्मज्ञों तक भी इसकी प्रतियाँ पहुँचायी जा रही हैं । उनके अभिमत लिये जा रहे हैं । अभी तक किसी ने भी सत्संकल्प के किसी भी सूत्र के प्रति सैद्धांतिक मतभेद या असहमति की बात नहीं उठाई है । थोड़ा और प्रयास किया जाये, तो तमाम संगठन इन सूत्रों को अपने-अपने प्रभाव क्षेत्र में अपने-अपने ढंग से लागू करने के लिए सहमत भी हो जायेंगे । ऐसी हर सहमति युगऋषि के प्रति एक जीवंत और सार्थक श्रद्धांजलि कही जा सकती है । युग निर्माण सत्संकल्प की छपी हुई प्रतियाँ विभिन्न भाषाओं में विचारशीलों तक पहुँचाना सबसे आसान, पहला चरण है । थोड़ा साधन, श्रम और समय लगाकर इस कार्य को कहीं भी किया जा सकता है । क्षणिक उत्साह में आकर भी इस कार्य को किया जा सकता है । अगले चरण में उन सूत्रों की गहराई में उतरकर उनके परिचालन में उज्ज्वल भविष्य की सुनिश्चित संभावनाएँ फलित होती अनुभव करने का है । इस दूसरे चरण को वही साधक सार्थक कर सकेंगे, जिन्होंने सूत्रों का मनन-चिंतन विभिन्न दृष्टिकोणों से किया है । विभिन्न मनोभूमियों तथा परिस्थितियों में उनकी उपयोगिता अनुभव की है । तीसरा चरण सूत्रों को जीवन का अंग बनाने का है । साधक स्वयं भी उन्हें जीवन में उतारें तथा अपने प्रभाव क्षेत्र में उनको व्यवहार में लाने का जीवंत वातावरण बनायें । इस तीसरे चरण तक पहुँचकर ही इन सिद्ध सूत्रों की अद्भुत शक्ति के सही स्वरूप का बोध हो सकेगा । इसे युगऋषि के प्रति सर्वश्रेष्ठ श्रद्धांजलि कहा जा सकेगा । इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये नैष्ठिक परिजनों को सृजन साधना महापुरश्चरण के लिए निर्धारित तप में निष्ठा दिखानी होगी । सत्संकल्प के सूत्रों के आधार पर ही आत्म-समीक्षा, आत्म-शोधन, आत्म-निर्माण एवं आत्म-विकास के चरण बढ़ाने होंगे । इसी तप की सिद्धि में सहायता के लिए सत्संकल्प के सूत्रों की समीक्षात्मक व्याख्या क्रमशः प्रस्तुत की जा रही है । सूत्र क्रमांक १ हम ईश्वर को सर्वव्यापी, न्यायकारी मानकर उसके अनुशासन को अपने जीवन में उतारेंगे । इस सूत्र के दो प्रमुख अंग हैं-(क)ईश्वर को सर्वव्यापी और न्यायकारी मानना तथा (ख) उसके अनुशासन को जीवन में उतारना । कई बार एक प्रश्न यह भी उठा दिया जाता है कि हम ईश्वर को क्यों मानें? इस प्रश्न का व्यावहारिक समाधान युगऋषि के इस कथन से मिलता है कि मनुष्य महान है और उससे भी महान है उसका सृजेता । मनुष्य इस सृष्टि में सर्वश्रेष्ठ है । इसे धर्म-अध्यात्म की विभिन्न धाराओं के विशेषज्ञ, समाज विज्ञानी, दार्शनिक तथा वैज्ञानिक सभी स्वीकार करते हैं । सनातन धर्म वाले नर तन सम नहीं कवनऊ देही । कहते हैं, तो इस्लाम में भी उसे अशरफुल मखलुकान । अर्थात् सृष्टि में सर्वश्रेष्ठ कहा है । इस आधार पर यदि सृष्टि में अन्य प्राणी असंतुलन पैदा करें, तो मनुष्य उन्हें सँभाल कर ठीक कर सकता है । वह विराट प्रकृति के साथ भी संतुलन बिठा सकता है । किन्तु समस्या यह है कि यदि मनुष्य ही असंतुलित हो जाये, तो उसे कौन सँभाले? आज तमाम ज्वलंत समस्याओं के पीछे एक यही तथ्य दिखाई देता है कि मनुष्य के असंतुलन से ही सारे असंतुलन पैदा हो रहे हैं । स्पष्ट है कि महान कहे जाने वाले मनुष्य को संतुलन में लाने की सार्मथ्य उससे भी महान उसके सृजेता ईश्वर में ही है । अस्तु यदि विनाश की विभीषिकाओं को निरस्त करके, उज्ज्वल भविष्य की संभावनाओं को साकार करना है, तो मनुष्य को अपने सृजेता के अनुशासन में चलने का अभ्यास फिर से करना ही होगा । उसका अनुशासन सीखने कहाँ जायें? कैसे उससे संपर्क बनायें? इसका उत्तर यही है कि वह सर्वव्यापी है तथा न्यायकारी है । न उसकी दृष्टि से बचा जा सकता है और न उसे कर्मकाण्डों से रिझाकर पक्षपात करने के लिए सहमत किया जा सकता है । इस तथ्य को भी अधिकांश आस्तिक स्वीकार करते हैं । परंतु उनमें से अधिकांश के मन-मस्तिष्क में ईश्वर के बारे में भेद-बुद्धि जमी बैठी है । यह भेद-बुद्धि ही तरह-तरह के विग्रह कराती है । ईश्वर सर्वव्यापी और न्यायकारी है, इस तथ्य को बार-बार गंभीर चिंतन द्वारा ही मन-मस्तिष्क में बिठाया जा सकता है । इससे सारे विग्रह समाप्त हो सकते हैं । यह भाव मन-मस्तिष्क में जमते ही हर बुरे कार्य के प्रति भय तथा हर भले कार्य के लिए मन में उत्साह जागने लगता है । युगऋषि सहित मर्मज्ञों ने ईश्वर को उच्च आदर्शों का समुच्चय कहा है । आदर्शमय जीवन में ही ईश्वर के अनुशासन सिद्ध होते हैं । उन्हें समझ लेना एक बुद्धिमानी है, किन्तु उन्हें जीवन में, व्यवहार में उतार लेना एक कौशल है, जो सतत अभ्यास से ही आता है । खेलने या संगीत के सूत्र जानते तो बहुत हैं, परंतु उन्हें अभ्यास में लाने वाले ही उनका समुचित लाभ उठा पाते हैं । ईश्वरत्व का लाभ उठाने के लिए भी उसके अनुशासनों को जीवन में उतारने का निरंतर अभ्यास करना होता है । सत्संकल्प के इस प्रथम सूत्र में ईश्वर के अनुशासनों को जीवन में उतारने के संकल्प के साथ ही आगे का रास्ता खुल जाता है । सत्संकल्प के अगले सूत्रों में ईश्वरीय अनुशासनों के ही विभिन्न स्वरूपों को खोला गया है । जीवन के अनुभव में भी वे खुलते रहते हैं । उन्हें एक-एक करके उनमें से हर एक के छोटे-छोटे अंगों को जीवन में उतारने का अभ्यास उज्ज्वल भविष्य की योजना को साकार करने वाला सिद्ध होगा । सूत्र क्रमांक २ शरीर को भगवान का मंदिर समझकर आत्म संयम और नियमितता द्वारा आरोग्य की रक्षा करेंगे । ईश्वर सर्वव्यापी है, तो सबसे पहले उसका बोध अपने अंदर होना चाहिए । सूर्य उगते ही उसका प्रकाश सब जगह फैलता है । जो व्यक्ति जहाँ होता है, उसे वहीं उसके प्रकाश का बोध होने लगता है, जैसे आँख वालों को प्रकाश का बोध अपने ही घर में होने लगता है, वैसे ही श्रद्धावान को ईश्वर का बोध अपनी काया में होना ही चाहिए । यदि हम आँख बंद कर लें, तो फिर प्रकाश का बोध नहीं होता । चूँकि हम शरीर को भोग का साधन मान लेते हैं, इसलिए हमें इस अश्रद्धा के कारण अपने अंदर ईश्वर का बोध नहीं होता । जब उसे भोग के लिए मिला मान लेते हैं तो फिर तरह-तरह के असंयम होते हैं और रोग घेर लेते हैं । ईश्वर हमारे अंदर है तो उसकी पहली चाह, उसका प्रथम अनुशासन यही होता है कि उसके निवास को स्वच्छ, स्वस्थ तथा उसकी गरिमा के अनुकूल बनाया जाये । ज्ञान-विज्ञान के आधार पर यह तथ्य सिद्ध हो चुके हैं कि आरोग्य तो जीवन का एक सहज अधिकार है । प्रकृति के अनुशासन में रहने वाले तमाम प्राण निरोग, स्वस्थ जीवन जीते हैं ।
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