
दिल्ली विधानसभा में आयोजित एक विशेष संगोष्ठी में 1975 की आपातकाल को भारत के लोकतंत्र का सबसे अंधकारमय अध्याय करार देते हुए नेताओं, पत्रकारों और बुद्धिजीवियों ने इसकी निंदा की और दोहराया कि “ना भूलें, ना माफ करें” सिर्फ एक नारा नहीं, बल्कि लोकतांत्रिक चेतना का संकल्प है।
केंद्रीय मंत्री डॉ. जितेंद्र सिंह ने कहा कि आपातकाल लादने वाले वही लोग थे जो आज भी राजनीतिक रूप से सक्रिय हैं और लोकतंत्र को अपने हितों के लिए कुचलने का माद्दा रखते हैं। उन्होंने इसे तानाशाही मानसिकता, वंशवाद और अवसरवाद का मिलाजुला नतीजा बताया।
दिल्ली विधानसभा अध्यक्ष विजेंदर गुप्ता ने मांग की कि आपातकाल की सम्पूर्ण जांच के लिए एक नया आयोग गठित हो, क्योंकि शाह आयोग की रिपोर्ट 1978 में आई तो थी, लेकिन वह पूरी सच्चाई सामने नहीं ला सकी। उन्होंने यह भी सवाल उठाया कि ‘समाजवादी’ और ‘पंथनिरपेक्ष’ जैसे शब्द संविधान में जबरन कैसे जोड़े गए।
वरिष्ठ पत्रकार रजत शर्मा ने अपने छात्र जीवन का दर्द साझा करते हुए बताया कि कैसे 17 वर्ष की उम्र में उन्हें गिरफ्तार किया गया, पीटा गया और फिर भी वे चुप नहीं बैठे। उन्होंने विजय गोयल के साथ मिलकर ‘मशाल’ नामक पर्चा छापकर तानाशाही के खिलाफ आवाज उठाई।
इस मौके पर ‘आपातकाल @50’ नामक पुस्तिका का विमोचन किया गया और एक वृत्तचित्र का प्रदर्शन भी हुआ। साथ ही, ‘The Emergency Diaries’ पुस्तक भी प्रतिभागियों को वितरित की गई।
कार्यक्रम में पूर्व केंद्रीय मंत्री सत्यनारायण जटिया, डिप्टी स्पीकर मोहन सिंह बिष्ट, पूर्व सांसद रमेश बिधूड़ी, एमएलए, पत्रकार, संविधान विशेषज्ञ और आपातकाल पीड़ित शामिल रहे। सभी ने एक स्वर में कहा कि देश को फिर कभी ऐसा दौर न देखना पड़े—और इसके लिए नई पीढ़ी को जागरूक रहना होगा।
संगोष्ठी का समापन इस संकल्प के साथ हुआ कि संविधान की गरिमा की रक्षा के लिए सतत सजगता और संस्थागत तंत्र की आवश्यकता है।