सनातनबोध का प्रकटीकरण है कुंभ-प्रो.संजय द्विवेदी



कुंभ भारत का सबसे बड़ा उत्सव है। आस्था, ज्ञान, सनातनबोध और भारतबोध कराने का ऐसा अप्रतिम उत्सव कोई दूसरा नहीं है। भारत को जानने और मानने की अभिलाषा लेकर यहां आए लोग रिक्त नहीं लौटते। कुंभ आपकी आस्था को और प्रगाढ़ करता है, भारतप्रेम को सजग करता है। आपको ज्यादा संवेदनशील और मानवीय बनाता है। इसलिए कुंभ की मान्यता और ख्याति विरल है। कुंभ की यात्रा हमें संपूर्ण करती है। एक खास भावबोध से बांधती है। इस यात्रा के सजग अनुभव से आप ज्यादा हिंदू या ज्यादा भारतीय हो जाते हैं। आपका मन सरल हो जाता है, आपके मन में भारत उतर जाता है धीरे-धीरे। आप एक सनातन यात्रा में सहयात्री हो जाते हैं। मन कहने लगता है, “युग-युग से बहता आता यह पुण्य प्रवाह हमारा।”
कुंभ की लोक में खास मान्यता है। यहां होना पुण्यभागी होना है, सौभाग्यशाली होना है। भारतीय संस्कृति की समझ और उसे एकत्र देखने का भाव हर भारतवासी को यहां खींच लाता है। दुनिया में मनुष्यों का यह सबसे बड़ा एकत्रीकरण है। जमावड़ा है। मेला है। कोई एक शब्द इसके लिए पर्याप्त नहीं। इसलिए इसे ‘कुंभ’ कहना ही पर्याप्त है। कुंभ में होना ज्ञान, परंपरा, संस्कृति, सामंजस्य, गीत-संगीत, प्रदर्शन कलाओं, धर्मबोध, भारतबोध, मूल्यबोध के साथ होना है। एक स्थान पर इतनी सारी विधाओं को साधने वाला एकत्रीकरण असंभव है। कुंभ का पर्याय सिर्फ कुंभ है। इस कुंभ में सारा जीवन है, सारा ज्ञान है। आज का जीवन है, भविष्य का संकेत है। यह एक साथ भारत की तरह ही नया और पुराना दोनों है। यहां आनंद है, अध्यात्म है। जीवन है, जीवन राग है तो जीवन से विराग भी है। परिवार है तो सन्यास भी है। भोजन है, तो उपवास भी है।
कुंभ सही अर्थों में एक आध्यात्मिक मेला है। जिसने भारत की एकता, सद्भाव और विविधता को साधकर सदियों से इस राष्ट्र को एक कर रखा है। कुंभ की यात्रा और उसके पुण्य जल के आचमन से व्यक्ति की जिंदगी में बड़े बदलाव आते हैं। वह एक परंपरा से जुड़कर संस्कृति का वाहक बन जाता है। भारत के सभी पंथों शैव, वैष्णव, शाक्त, अघोर पंथी, उदासी, सिक्ख, जैन और बौद्ध मतावलंबी कुम्भ में एकत्र आते हैं। सभी शंकराचार्य और सभी अखाड़े इसमें सहभागी होते हैं। इस तरह यह भारत के एकीकरण का भी सूचक है। इससे हमारी सांस्कृतिक एकता का प्रकटीकरण होता है। वैसे भी भारत के बारे में हम कहते हैं कि यह ऋषियों का बनाया हुआ राष्ट्र है। इसलिए इसका अलग ही महत्व है। यह सामान्य देश या राज्य नहीं है। यह राष्ट्र है। जिसकी एकता का आधार संस्कृति है। बिना किसी आमंत्रण के दुनिया भर से लोग यहां अपनी-अपनी व्यवस्थाओं से यहां आते हैं और आनंद का अनुभव करते हैं। कुंभ में होना सौभाग्यशाली होना है। हर हिंदु की यह कामना होती है कि वह चारों धाम की यात्रा और कुंभ में एक बार स्नान अवश्य करे।
पुराण कथा तो कहती है कि समुद्र मंथन से अमृत कलश निकला तो दोनों पक्ष भिड़ गए। देवताओं और राक्षसों की इस जंग में अमृत जहां-जहां छलका, वे सारे स्थान ही कुंभ के केंद्र या आयोजन स्थल बने। अमृत की ये बूंदें आज तक हमारे जीवन को अध्यात्म और समरसता के भाव से भर रही हैं। वे हमें जोड़ रही हैं उस परंपरा से, उस संस्कृति से जो नितनूतन और चिरपुरातन है। यह संवाद का केंद्र भी है। अपने समाज और उसके वर्तमान के प्रश्नों से जूझना और आनेवाले समय के लिए पाथेय प्राप्त करना भी कुंभ में आने वाले समाज का ध्येय रहता है। जाति, पंथ, भाषा, क्षेत्र के भेद से परे हटकर समाज चिंतन के लिए यहां हम एकत्र होते हैं। सारा कुछ भूलकर,सारा कुछ छोड़कर। समाज को समरस और आत्मीय बनाने के सूत्र यहां मिलते हैं। परंपरा से जुड़कर हम सीखते हैं और संदेश अपने गांव, नगरों, वनों और पर्वतों तक ले जाते हैं। कुंभ किसका है तो इसका जवाब है यह सबका है। समाज के हर वर्ग की यहां उपस्थिति उसे पूर्ण बनाती है। यहां पहचानें विलीन हो जाती हैं सब हिंदु या भारतीय हो जाते हैं। “जाति पांति पूछे नहीं कोई हरि को भजै सो हरि का होई।” का भाव यहां चरितार्थ हो जाता है।
कुंभ संचार व संवाद का सबसे बड़ा केंद्र है। यहां ज्ञान सरिता बहती रहती है। प्रवचन, उपदेश, शास्त्रार्थ, प्रदर्शन कलाओं और संवाद के माध्यम से आम लोगों को संदेश दिया जाता है। कुंभ की उपयोगिता इस अर्थ में विलक्षण है कि यहां संचार और संवाद की अनंत धाराएं बहती हैं। परंपरा से यहां संवाद हो रहा है। इसका उद्देश्य है- मानवता के समक्ष उपस्थित चुनौतियों और संकटों के हल खोजना। ऋषियों और गुरुजनों से मिले पाथेय को नीचे तक पहुंचाना ताकि हमारा समाज अपने समय के संकटों के ठोस और वाजिब हल पा सके। संवाद की यह चेतना इतनी गहरी है कि समाज के अंतिम व्यक्ति तक कुंभ का संदेश सदियों से बिना विकृत हुए यथारूप पहुंचता था। आज संचार साधनों की बहुलता में संदेश का उसी रूप में पहुंचना कठिन होता है। या तो संदेश की पहुंच में समस्या होती है, या उसके अर्थ बदल जाते हैं और उनकी पवित्रता नष्ट हो जाती है। किंतु प्राचीन समय की संवाद और संचार व्यवस्था इतनी ताकतवर थी कि समाज के सामने कुंभ के संदेश और वहां मिला पाथेय यथारूप पहुंचता था। इस तरह कुंभ हमारे सांस्कृतिक राष्ट्र की समाज व्यवस्था का एक अनिवार्य अंग हैं, जिसके माध्यम से राष्ट्र अपने संकटों के समाधान खोजता रहा है। इन्हीं रास्तों से गुजरकर हम यहां तक पहुंचे हैं। ऋषि परंपरा के उत्तराधिकारी होने के नाते हर संकट में उनका पाथेय ही हमारा संबल बना है।
कुंभ में आने वाले लोगों को देखिए तो भारत के प्रति आस्था बढ़ जाती है। कुंभ में देश के सुदूर प्रांतों, गांवों, वनों और पहाड़ों से लोग बहुत संघर्ष करके अपनी तीन-तीन पीढ़ियों के साथ पहुंचते हैं। बिना आरक्षण ट्रेनों, बसों और विविध साधनों से पहुंचने वाले यह लोग भारत की आत्मा को खोजते हुए यहां आते हैं। साधनों की अनुपलब्धता भी उनके लिए बाधा नहीं है। वरिष्ठ नागरिकों की भारी संख्या से लेकर बच्चों की भी यहां उपस्थिति होती है। एक साथ कई पीढ़ियां अपने देश के सांस्कृतिक वैभव से परिचित होती हैं। कुंभ की महिमा बहुत है। हमारे शास्त्र इसके बारे में बहुत व्यापक वर्णन करते हैं। देश में होते रहे आक्रमणों, विदेशी शासकों की उपस्थिति के नकारात्मक प्रभावों के बाद भी यह परंपरा जारी रही और फलती-फूलती रही। परंपरा को बनते हुए देखना और संस्कृति की तरह उसका मनों में पैठ जाना भारत के लोकमानस की विशेषता रही है। भारत का सांस्कृतिक अवचेतन इन्हीं आयोजनों और लोकपर्वों से निर्मित हुआ है। इन्हीं ने भारत के मन को इतना विशाल, सरोकारी और सर्वजनहिताय बनाया है। भारत परंपरा गुणधर्मी समाज रहा है जिसने विस्तार के बजाए गुणता पर जोर दिया है। मनुष्य निर्माण की एक पूरी यात्रा हमारे समाज की स्वविकसित प्रणाली है। जहां कर्म ही उसका धर्म है और प्राण है। इसी प्राण से उर्जा लेकर हमारे ऋषि राष्ट्र की ‘सांस्कृतिक चिति’ की निर्मिति करते रहे हैं। इस तरह हमारे सांस्कृतिक प्रवाह में कुंभ मेला केंद्रीय आध्यात्मिक भूमिका निभाता और हमारे होने व जीने में सहायक है। अपनी पहचानों की सजगता से लेकर मनुष्यता के गुणों की निर्मिति और विस्तार इसे उपयोगी बनाते हैं। ज्ञान परंपरा का संबल, धर्म की वास्तविक समझ और दान की महत्ता का विस्तार हमें मनुष्य बनने में मदद करते हैं। कुंभ इन्हीं सरोकारों से संपूर्ण होता है। जहां आत्मत्याग, भारतबोध, धर्म की धारणा को कल्पवास के माध्यम से जीवन में उतरता हुआ हम देख पाते हैं। यहां बड़ा, छोटा और ऊंचा आदमी अपने गुणों से होता है, अन्य कारणों से नहीं। समझ और विवेक के तल पर हमारा होना हमें सार्थक बनाना है। इसलिए हम लंबे नहीं सार्थक जीवन की कामना करते हैं और वानप्रस्थ और सन्यास हमारे जीवन के उच्चादर्श बन जाते हैं। जीवन में रहते हुए मुक्ति की कामना और परोपकार का भाव ही सही मायने में भारत के मनुष्य के अवचेतन में समाया हुआ है। वह छोड़कर मुक्त होता है। भगवान राम, महावीर, गौतम बुद्ध सब राजपुत्र हैं, जो राज छोड़कर अपनी मुक्ति की राह बनाते हैं। तो राज करते हुए भी कृष्ण योगेश्वर और जनक विदेह हो जाते हैं। भरत का त्याग तो अप्रतिम ही है, वे राजा तो हैं किंतु सिंहासन पर नहीं हैं। भारत ऐसी ही विभूतियों के त्याग और प्रेरक कथाओं से बना है। कुंभ में नायकों का स्मरण, निरंतर होने वाली ज्ञान चर्चाएं भारत का मन बनाती हैं। वे बताती हैं कि हमारा भारत बने रहना क्यों जरूरी है। सच यही है कि कुंभ का मन ही भारत का मन है। जब तक कुंभ है, भारत बना रहेगा। भारतबोध की प्रक्रिया जारी रहेगी। अमृत जहां गिरा वहां कुंभ का होना इस बात की गवाही है कि जहां अमृत छलकेगा भारतपुत्र वहां जरूर होंगें। ज्ञान का अमृतपान करने, परंपरा का अवगाहन करने, भारत को जानने के लिए, खुद को पहचानने के लिए।
लेखक परिचयः
प्रो.संजय द्विवेदी, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल में 10 वर्ष मास कम्युनिकेशन विभाग के अध्यक्ष, विश्वविद्यालय के कुलपति और कुलसचिव भी रहे। भारतीय जन संचार संस्थान, नई दिल्ली (आईआईएमसी) के पूर्व महानिदेशक हैं। ‘मीडिया विमर्श’ पत्रिका के सलाहकार संपादक। राजनीतिक, सामाजिक और मीडिया के मुद्दों पर निरंतर लेखन। अब तक 35 पुस्तकों का लेखन और संपादन।

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