जो ध्यान साधना में आगे बढ़ना चाहते है,
उनको *' वो '* और *' मैं '* को समझना जरूरी है।
यहाँ *वो* जो खुद पे विश्वास नहीं रख पाएं और *मैं* जो स्वयं को परमात्मा का अंश मानकर बस उसीके पथ पर आगे बढ़ रहें हैं।
और मानते है की....
' मैं ' आरम्भ हूं,
' मैं ' ही अंत हूं,
' मैं ' बस मैं हूं,
क्योंकि ' मैं ' अंतहीन का ही तो अंश हूं।
*वो और मैं*
वो.... अंधविश्वास, मैं.... आत्मविश्वास।
वो पूछते हैं कौन हूं मैं,
मैं कहता हूं 'मैं हूं मैं '।
वो कहते हैं अहंकार है मैं,
मैं कहता हूं ' हूं मैं '।
वो हंसते है मैं पे मेरी,
और उनपे हंसता हूं ' मैं '।
वो भीड़ दिखते है मुझे,
आईने में अकेला दिखता हूं ' मैं '।
वो भेड़ों के झुंड़ में है खड़े,
तो सिंह सा दहाड़ता हूं ' मैं '।
वो बहते नदी बहाव से हैं,
नांव में बड़ता ह